________________
for
{ ૪૩
अविरत विषै युगपत् संभवत हिंसा के प्रत्येक द्विसंयोगी आदि भेदनि का, श्रर ते भेद जेते होइ ताका वर्णन है ।
बहुरि पांचवां प्रकार विषै तिन स्थाननि विषै भंग ल्यावने के विधान का वाग का वहाँ अविरत विषे हिंसा के प्रत्येक द्विसंयोगी आदि भंग ल्यावने कौं गणितशास्त्र के अनुसार प्रत्येक द्विसंयोगी, त्रिसंयोगी यादि भंग केल्यावने के विधान का वर्णन है । बहुरि सवति के विशेषभूत जिनि-जिनि भाव तें स्थिति अनुभाग की विशेषता लीयें ज्ञानावरणादि जुदि-जुदि प्रकृति का बंध होइ तिनका क्रम तैं वर्णन है ।
बहुरि सातवां भावचूलिका नामा अधिकार हैं। तहां नमस्कारपूर्वक प्रतिज्ञा करि भावनि तँ गुणस्थानसंज्ञा हो है ऐसे कहि पंच मूल भावनि का, पर इनके स्वरूप का, १ अर तिरेपन उत्तर भावनि का, अर मूल-उत्तर भावनि विषै अक्षसंचार विधान से प्रत्येक परसंयोगी, स्वसंयोगी, द्विसंयोगी आदि भंग जैसे होइ ताका, श्रर नाना जीव, नाना काल अपेक्षा गुणस्थान विषै संभवते भावनि का वर्णन है ।
बहुरि एक जीव के युगपत् संभवते भावनि का वर्णन है । तहां गुणस्थाननि विषै मूल 'भावनि के प्रत्येक, परसंयोगी, द्विसंयोगी आदि संभवते भंगति का वर्णन है । तहां प्रसंग पाइ प्रत्येक, द्विसंयोगी, त्रिसंयोगी आदि भंग ल्यावने के गणितशास्त्र अनुसार विधानं वर्णन है । बहुरि गुणस्थाननि विषै मूल भावनि की वा तिनके मंगनि की संख्या का वर्णन है ।
बहुरि उत्तर भावनि के भंग स्थानगत, पदगतं भेद तें दोय प्रकार कहे हैं । तहां एक जीव के एक काल संभवते भावनि का समूह सो स्थान । तिस अपेक्षा जे स्थानगत भंग, तिन विषे स्वसंयोगी भंग के अभाव का अर गुणस्थाननि विषै संभवते श्रीपशमिकादिक भावनि का पर श्रदयिक के स्थाननि के भंगनि का वर्णन करि तहां संभवते स्थाननि के परस्पर संयोग की अपेक्षा गुण्य, गुणकार, क्षेपादि विधान तें जैसे जेते प्रत्येक भंग पर परसंयोगी विषै द्विसंयोगी आदि भंग होइ तिनका, और हां गुण्य, गुणकार, क्षेत्र का प्रमाण कहि सर्वभंगनि के प्रमाण का वर्णन है ।
बहुरि जातिपद, सर्वपद भेदकर पदगत भंग दोय प्रकार, तिनका स्वरूप कहि गुणस्थाननि विषे जेते जेते जातिपद संभवें तिनका भर तिनको परस्पर
१ ख पुस्तक में यह पाठ नहीं है ।