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होता जाता है। मानसिक दोष भी आज्ञापूर्वक किए गए प्रतिक्रमणों से साफ होते जाते हैं और चित्त निर्मल और मुक्त रहने लगता है। जागृति उत्पन्न होकर वर्धमान होती जाती है, जिसकी वजह से विषय विचार या चित्त के दोष पकड़ में आते हैं और प्रतिक्रमण द्वारा वे शुद्धि में परिणामित होते हैं। विषय दोषों के सामने तीव्र जागृति उत्पन्न होना, वह 'अक्रमविज्ञान' की अद्भुत भेंट है।
__ अब्रह्मचर्य का अभिप्राय ही अब्रह्मचर्य में जकड़े रखता है। 'ज्ञानीपुरुष' के परिचय से सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूप से अब्रह्मचर्य का अभिप्राय खत्म हो जाता है और ब्रह्मचर्य का अभिप्राय फिट हो जाता है। जब ब्रह्मचर्य का निश्चय यथार्थ रूप से पकड़ में आ जाए, तभी से ग़ज़ब का सुख छलकने लगता है, वह सुख ही विषय सुख की उल्टी मान्यताओं को छुड़ानेवाला सिद्ध होता है। उसमें भी जो 'ज्ञानीपुरुष' द्वारा बताई गई ब्रह्मचर्य की चाबियाँ पुरुषार्थ हेतु प्रयोग में लाना सीख जाए, उसकी तो हर तरह से 'सेफसाइड' हो जाती है। ऐसी सभी चाबियाँ, स्थूल प्रसंगों से लेकर आंतरिक सूक्ष्म उदयों में से किस तरह निर्लेप रहकर बाहर निकला जाए और अपने ध्येय को पकड़े रहें, सिर्फ इतना ही नहीं लेकिन ध्येय स्वरूप हो जाने के लिए आवश्यक सर्व वैज्ञानिक वाणी यहाँ पर संकलित हुई है !
_ 'विषय में सुख है' यह 'रोंग बिलीफ' इतनी गाढ़ हो गई है कि उसके निमित्त मिलते ही वह 'रोंग बिलीफ' हाज़िर हो जाती है, और उसमें तन्मयाकार कर देती है। 'विषय में सुख है', इस बात की 'रोंग बिलीफ' जहाँ-जहाँ, जिस-जिस प्रकार से बैठी हो, उसके साधनों संबंधित जिस प्रकार से 'रोंग बिलीफ' बैठी हो, उन सभी को, एकएक को जागृतिपूर्वक मूल से पहचानकर, 'सामायिक प्रयोग' में लेकर, ज्ञान द्वारा, ‘थ्री-विज़न' की जागृति से बदलना है। जब तक यह 'रोंग बिलीफ' मूल में से नहीं जाएगी, तब तक विषय का आकर्षण सहजरूप से रहेगा ही। अतः आकर्षण को नष्ट करने के लिए उसके 'रूट कॉज़' रूपी बिलीफ को ही सर्वांश रूप से निर्मूलन करने का पुरुषार्थ रखना आवश्यक हो जाता है!