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मागधी पुरुषोत्तम ने प्राकृतानुशासन ( अध्याय १३-१५) में मागधी भाषा के अन्तर्गत शाकारी, चाण्डाली और शाबरी भाषाओं का उल्लेख किया है। यहाँ शाकारी को मागधी की विभाषा,' चाण्डाली को मागधी की विकृति और शाबरी को एक प्रकार की मागधी (मागधीविशेष) कहा गया है। चाण्डाली में ग्राम्योक्तियों की बहुलता पाई जाती है।
पिशल का कथन है कि मागधी एक भाषा नहीं थी, बल्कि इसकी बोलियाँ भिन्न-भिन्न स्थानों में प्रचलित थीं। इसीलिये
स्थान पर हगे हो जाता है, कभी वयं के स्थान पर भी हगे ही होता है। वररुचि (११. ४,७ ) तथा हेमचन्द्र (४. २९२ ) के अनुसार य जैसे का तैसा रहता है और ज के स्थान पर भी य हो जाता है । छ, र्य और जं के स्थान पर यय होता है, लेकिन यह नियम ललितविग्रहराज के सिवाय अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ ४५।
वररुचि ( ११वां परिच्छेद) और हेमचन्द्र (४. २०७-३०२) के अनुसार मागधी के कुछ नियम निन्न प्रकार से हैं:
(क)ज के स्थान में य हो जाता है (जायते-यायदे)। (ख) र्य और ज के स्थान में य्य हो जाता है (कार्यम-कय्ये,
दुर्जन:-दुय्यणे)। (ग) क्ष के स्थान में स्क हो जाता है ( राक्षस-लस्कशे)। (घ) न्य, ण्य, ज्ञ, अ, के स्थान में अ हो जाता है (अभिमन्यु
अहिमञ्ज, पुण्यवन्तः-पुजवन्ते, प्रज्ञा-पञ्जा, अञ्जली
अन्जली)। (ङ) क्त्वा के स्थान में दाणि हो जाता है (कृत्वा-करिदाणि )। १. मार्कण्डेय (पृष्ठ १०५) ने भी शाकारी को मागधी का ही रूप ___ बताया है-मागध्याः शाकारी, सिध्यतीति शेषः । २. मार्कण्डेय ने चांडाली को मागधी और शौरसेनी का मिश्रण स्वीकार किया है (पृष्ठ १०७) । शाबरी को उसने चांडाली से आविर्भूत माना है (पृष्ठ १०८)।