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"विषय ही प्रधान होता है, बड़ा-छोटा नहीं।"
माँ और बेटे के इस सम्भाषण को युवराज एरेयंग सुन रहे थे। उन्हें अचानक कुछ सूझ पड़ा । मुँह पर एक हँसी की रेखा खिंच गयी। "समझ गया अप्पाजी, तुम्हारे आने को कुछ से पहले हमने ही युवरानी से पूटा था उन्होंने कहा ।
"क्या?" बल्लाल को आश्चर्य हुआ ।
"यही जो तुम्हारे मन में है। राजमहल के सभी कार्यों में जिन्हें सदा उपस्थि: रहने की हम सोचते हैं, यदि वे दिखाई न दें तो जो प्रश्न उठ सकता है वही । ठीक है न एरेयंग ने कहा ।
वल्लाल उत्तर दिये बिना चुप बैठा रहा 1
"अप्पाजी, उनके न आने का कारण हमें मालूम नहीं। हम ही स्वयं इस सम्बन्ध में कुछ दर्याफ़्त करें, यह भी ठीक नहीं। इसलिए तुम्हें स्वयं जाकर सीधे दफ़्त कर लेना होगा।" एचलदेवी ने समझाया।
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"इन सब बातों को दर्याफ़्त करने जाना कुछ ठीक नहीं जँचता होगा कोई उचित कारण इसलिए शायद नहीं आये। धीरे-धीरे अपने आप मालूम हो जाएगा। अच्छा में चलूँ !" बल्लाल उठ खड़ा हुआ ।
"अच्छा, अय्याजी।" एरेयंग बोले ।
बल्लाल चला गया।
" देखा ! पहले का अप्पाजी होता तो कहता अभी जाता हूँ ।" वह संयम उसके लिए बहुत ही अच्छा है। इससे उसकी भलाई होगी। प्रभु अव विश्राम करें। पण्डितजी सूर्यास्त से कुछ पहले आएंगे कह गये हैं।" एचलदेवी ने कहा ।
"हाँ, ठीक है। एक खास विषय पर विचार-विमर्श करने के लिए बुलवाया था। सिंगिमय्या दक्ष कार्यकर्ता हैं। उन्हीं को बलिपुर क्षेत्र का हेगड़े बना दिया जाए और भारसिंगय्या को राजधानी में ही रखें आज की परिस्थितियों में यह आवश्यक लगता है। युवरानी की क्या राय है ?"
प्रभु को यदि आवश्यक लगता हैं तो ऐसा ही करें। मेरे लिए तो यह बहुत ही सन्तोष की बात है। लेकिन उन्हें बुलवा लिया गया तो किस-किस के मन में क्या-क्या बात उदेगी इस पर भी ध्यान देना होगा। कभी एकाध बार आये गये तो उसी पर व्याख्याएँ होने लगीं। हम वहाँ गये, सुनती हूँ इस पर बहुत टीका-टिप्पणी ही रही है ।"
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"हम पर?"
गोसा होता तो एक बार उसके प्रति उदासीन भी रह सकते थे। लेकिन इसके लिए बेचारी हेगड़ती को दोषी बनाकर पता नहीं क्या-क्या बातें राजधानी में चल पड़ी हैं।"
पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो 31