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* समय ने माता पिया, इसहसा बहुत बड़ा उपकार हुआ है। अगर वह हमारे साथ बलिपुर आ गया होता तो आज का अप्पाजी नहीं बन पाता।"
"तो छोटे अप्पाजी में अवांछित परिवर्तन हुआ है क्या?" "न, न, ऐसा कुछ नहीं है।" "तब तो बलिपुर हमारे लिए अनुकूल ही रहा!"
''बह तो ठीक है, लेकिन प्रभु ने जैसा कहा, परिवर्तित वातावरण की जरूरत थी। बलिपुर जाते तो जिस परिवर्तन की आवश्यकता थी वह कहाँ से हो पाता!''
"अच्छा, यह बात है! हाँ, दण्डनायिका और उनकी बेटियाँ नहीं दिखाई दीं।"
"प्रभु-दर्शन किये बिना किसी से न मिलने का अपना इग़दा मैंने बताया था, इसलिए शायद वे नहीं आयीं। आजकल ये बहुत कम मिलती-जुलती हैं।''
"अप्पाजी ने उनके बारे में पूछताठ नहीं की?" "नहीं।" तभी घण्टी की धीमी आवाज सुन पड़ी।
"कोन!" एरेयंग प्रभु ने परदे की ओर देखा। परदा सरकाकर रेबिमय्या भीतर आया और बोला, "अप्पाजी दर्शन करना चाहते हैं।"
"बुलाओ।"
रेविमव्या परदा उटाकर बाहर खड़ा हो गया। यरलाल अन्दर आया और माँ के पास बग़ल में पलंग पर बैठ गया।
"वं लोग कहाँ हैं?" एचलदेवी ने पूछा। "वे दोनों अभ्यास कर रहे हैं। आज मैंने छुट्टी पाँग ली है।" "टीक ही किया। आज तुम्हें पूरा आराम करना चाहिए। अच्छा कुछ पूछना
था
"
"हौं," लेकिन आगे कुछ कहने से वह हिचकिचाया। "क्यों? क्या बात है, कहो!" युबरानी ने पूछा ।
"जबसे दोरसमुद्र आये तभी से मेरे मन में एक प्रश्न उठ रहा है। परन्तु उस सम्बन्ध में किसी से दर्याप्त करने की इच्छा नहीं हो रही है। आपसे भी पूछू या नहीं...इस पर बहुत विचार किया। बिना पूछे मेरे मन को समाधान भी तो नहीं मिल रहा है, इसलिए...” और बल्लाल कुछ कहते-कहते रुक गया।
"हमसे कहने में संकोच किस बात का, अप्पाजी” युवरानी एचलदेवी ने कहा।
''कुछ सहज साधारण बातें कई बार अन्यथा भी समझ ली जा सकती हैं।" "हम विश्वास योग्य हैं तो अन्यथा समझने का अवसर ही कहाँ?'' "फिर भी बड़ों के विषय में पूछना..."
30 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो