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। पाटदता.
१९९१ में भाद्रपद शुक्लचतुर्थी वार्षिक पर्वतिथिका क्षय था उसको क्षय मानते ! लेकिन ऐसा तो उन्होने कीया ही नहीं! अर्थात् उस वक्त तो उन्होने भी चतुर्थीका क्षय नही मानते ३. तीयाका ही क्षय मानाथा! इसीसें साबीत होता है कि १९९०से नहीं किंतु तानवेसे ही यह मान्यता व प्रवृत्ति तब्दिल हुई है ! अगर यह मान्यता पहलेसे होती तो मासक्षपणके प्रत्याख्यानमें गरबड़ी नहीं होती! और वीरशासन शनिश्चरकी संवत्सरीकी मुनादि (डुडि) कबहीसे पीट देता. __इन्द्र०-आप प्रत्याख्यानकी बातको लाते है, परंतु प्रत्या. ख्यानका संवत्सरीके साथ क्या संबंध है ? मुनिमाहाराजाओंका तो यही उद्देश्य है कि कोई भी व्यक्ति जिस वक्त शुभ भावना में आकर जोभी कुछ शुभकार्यमें प्रवृत्ति करने लगे तो उसी वक्त उसको सहायता करनाही चाहिये. अर्थात् जिस वक्त जो प्रत्याख्यान लेवे उसी वक्त उसको पञ्चखाण देदेना चाहिये, कारण संभव है कि कुछ समय बाद उसके विचारोंमें परिवर्तन हो जाय, और इसी नियमानुसार प्रत्याख्यान दे दिये गये ! नकि संवत्सरीके हिसाबसे.
वकी०-उसवक्त क्या आप व्याख्यानमें हाजीरथे ? इन्द्र०-नहीं.
वकी-तो आप कैसे जाहिर करते है कि कोई व्यक्ति पच्चखाण जिस वक्त लेने आवे उसी वक्त देदेना चाहिये? आएको जब मालूम ही नहीं है तो आप जाहिर कैसे करसकते
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