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महांमी नहीं आये, और गुपचुप ही बैठ रहे ! जहां कोई भी जबाब देनेवाला नहीं ऐसे गांवड़ो में जाकर बोलना यह कहांका न्याय है ? जोभी कुछ बोलनाथा तो हमारी समक्ष ही बोलना था कि - जिससे सत्यासत्यका प्रकाश सहजमें ही हो जाता. अब तो इन लोगोंको जाहीर जनताकी समक्ष ही खुल्ला कर देना अच्छा है. विचार करके दूसरे दिन याने फाल्गुन शुक्ल १३ को, छ कोशकी प्रदिक्षणाका दिन होनेसे आदपरमें- जहां प्रदिक्षणा फिरनेवाले सभी लोग इकट्ठे होते हैं, और वहांपर तंबु, रावटी, खानपान वगैरा सब ही बातका इन्तजाम रहता है. वहां पर जं०वि० भी आये इधर हंससागरजी भी आये ! सुनवर्ग के लिये बडा एक ही तंबु था. उसमें सब ही साधुमहाराज, व जं० वि० भी बैठे हुए थे, उस वक्त श्रीहंससागरजी माहाराज पर्वतिथिप्रकाश नामक पुस्तक हाथमें लेकर खड़े हुए, और बोले कि — मैंने शांतिभुवन में जाकर जं० वि० से कहा कि - तुमारी बनाई हुई यह किताब खोटी हैं, खोटी हैं, खोटी हैं. वास्ते इसका खुलासा करो उसवक्त उनोने कुछ खुलासा किया नहीं जाहिर व्याख्यानमें बुलवाये, वहां परभी नहीं आये ! और गांवड़ोमें जाकर ऐसा वैसा बोलते है. अब आप समस्त मुनिमंडल व यहांपर रहे हुए श्रावकगणके समक्ष जाहिर करता हूं कि इस किताब में जंबुविजयजीने लगभग सब ही झूट्टा लिखा है ! अगर ये सच्चे होतो यहांपर अपना सच्चापना साबीत करने को तैयार हो जाय. ये जो तैयार नहीं
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