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(१९४) विनंति हैं कि-आज मोती सुखीयाकी धर्मशालामें आचार्यमाहाराज जाहिर व्याख्यानद्वारा पर्वतिथिकी वृद्धि और क्षय माननेवालोंका खंडन करनेवाले हैं, सबब आपभी वहां पधारीये और अपने मंतव्यको जाहिर कीजिये. इसके जवाबमें भी . उन्होने नकार सुनाया! फिर हंससागरजीने कहा कि अगर आज आप नहीं पधार सकते हो तो कल आप पनालाल बाबु की धर्मशालामें पधारीये! तो भी जं० वि० नहीं माने तब कहा कि-यदि आप कहें तो आपके स्थानपर श्रीमान् आचार्य माहाराजको पधारनेकी विनंति करूं! इसके जवाबमें भी जं. वि० ने यही कहा कि-लेखित चर्चा शिवाय मैं कुछभी करना नहीं चाहता हूं (इतने में)
इन्द्र०-यहतो श्रीमान् उपाध्यायजी माहाराजका लिखवाना बहुत ही माकुल हुवा. सबब जबाबदारी विनाकी चर्चा करके दोनो पक्षका टाईम व्यर्थ क्यों गुमाना चाहिये ?
वकी०-यह कोई माकूल जवाब नहीं था, किंतु जं० वि० ने चर्चासे निकल जानेका रास्ता शोचाथा. नहीं तो ऐसा लिखवानेकी क्या जरूरत थी? जब की पर्वतिथिप्रकाश नामक खुदने बनाकर खुदहीने छपवाइ है, तो जबाबदारी भी खुदही की है ! यदि समस्त संघकी जबाबदारीसे पुस्तक छपवाइ होती तो उनकी झुठाइ साबीत करनेके वक्त समस्त संघको जबाबदारीका बहाना नीकालना ठीक होता. (इतनेमें)
पना-अजी साहब ! जं० वि० ने वहतो जानबुझ करे
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