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जैसी ही कहते है और चतुर्दशीको तो रहन जैसी ही मानते है इतना ही नहीं, किंतु वादीके मुहसेभी 'त्रयोदशी' ऐसा नामतक सुनना नहीं चाहते है, और चतुर्दशीही है ऐसाही मानने व बोलने के लिये फरमाते है !
हीरप्रश्नसे भी वादीका कहना योग्य मालूम नही होता. क्योंकि - इधर " त्रयोदशी चतुर्दश्योः " ऐसा द्विवचनात्मक प्रयोग है, नकि 'चतुर्दश्यां ' ऐसा एकवचनात्मक.
वृद्धि बाबत भी वादीका आधार हीरप्रश्न और सेनप्रश्न'कि जिसमें लौकिक पंचांगसे ही बात की गई है' उसके उपर ही हैं. और वह आधारभी योग्य नहीं है. अमावास्याको पहली दूसरी, ऐसे विशेषण नहीं होनेसें, और एकमको तो विशेषणकी आवश्यकता ही नहीं हैं. सबब दूसरी एकममें कल्पवांचन ( कल्पप्रारंभ ) आता ही नहीं है. और सेनप्रश्न में भी जहां दो एकादशीका प्रश्न है वहां पर भी "औदयिकी" कहकर जबाब दिया है, वादी उस "औदयिकी" शब्दका अर्थ 'दूसरी' ऐसा करते है वह भी व्याकरण शास्त्र के कायदे से खिलाफ ही है. सबब कि "औदयिकी" का अर्थ 'उदयवाली' ऐसा ही स्पष्ट होता है. और वृद्धि के वक्त उदयवाली तो दोनोंही है, और प्रयोग एकवचनात्मक होने से दोनोका ग्रहण हो नहीं सकता. इससे ऐसा मालूम होता है कि - जैनशास्त्रकार पहली तिथिको उस तिथिपने में उदयवाली ही नहीं मानते है । ऐसी रीतिसें शास्त्रकार जब पूर्वतिथिको उदयवाली ही नहीं मानते तो वह पूर्व
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