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है. इसीसे पहले दिनका आराधन श्रेष्ठ क्यों नहीं है ? ऐसे शिष्य के प्रश्नका उत्तर देते है कि-क्षय हो तब पूर्वतिथि ग्रहण करना और वृद्धि हो तब उत्तरतिथि ग्रहण करना. श्रीवीरप्रभुका निर्वाण तो लोकके अनुसार जानना. वैसेही उदयबाली तिथि हो वही प्रमाण है' वगैरह उमास्वातिवाचक आदिके वचनकी प्रमाणीकतासे वृद्धि हो तब न्युन होते हुएभी उत्तरतिथि प्रमाण होती है. इससे यही कहा कि-सूर्योदय वक्त में जो तिथि हो वही तिथि मान्य है, अन्य नहीं. श्रीहीरप्रश्नके चतुर्थप्रकाशमें क्षयतिथिको उदेश करके ऐसा प्रश्न किया हुआ है कि-जब पंचमी तिथिका क्षय हो तब उसका तप किस तिथिमें करना,
और पूर्णिमाका क्षय हो तब उसका (पूर्णिमाका ) तप कीस तिथिमें करना ? यहां उत्तर देते है कि-पंचमीका क्षय हो तब पहली तिथिमें करना, और पूर्णिमा 'अमावास्या के क्षयमें त्र. योदशी चतुर्दशीमें करना! त्रयोदशी दिन कभी भूलजाय तो एकमके दिन करना, ऐसा कहा है ! अब यहां विजयानंदमूरि (आणमुर) गच्छवाले 'प्रतिपद्यपि" इस शब्दको लेकर पूर्णि माकी वृद्धि में एकमकी वृद्धि करतें है यह मत खोटा है। सबव पुनमकी वृद्धि में तेरसकी वृद्धि होती है, एकमकी वृद्धि नहीं होती है. अब यहां शंका करता है कि-पूर्णिमा वृद्धिके वक्त चतुर्दशीके अंदर पूर्णिमा संक्रमीत होती है, तब आप चतुर्दशी की वृद्धि क्यों करते नहीं ? और तीसरे स्थान पर रही हुई त्रयोदशीको क्यों बढ़ाते हो ? ऐसा जो तूं प्रश्न करता है तो
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