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(106) छट्टकी शक्ति न होतो संवत्सरीके उपवासमें गिने हुवे दोनों पाठोके अंदर 'मुख्यतया-कदाचित-षष्ठकरणसामर्थ्याभावे और नान्यथा' वगैरह शब्दसे यही जाहिर होता हैं कि-'जैसे शक्ति नहीं होनेवाला ही रूपेका रूपा नहीं देते हुए न्युन देता है और शक्तिवाला तो रूपेका रूपा देता है और हुंडीकी मुदतके दिन ही चुकाता है, ऐसे ही विना शक्तिवाले लोग पंचमीका उपवास चतुर्थीमें चुका सकते है अन्यथा नहिं.' शास्त्रकारने जो कहा है वहतो कमजोर शक्तिरहितोंके लिये ही कहा है. नकि हमारे तुमारे जैसोंके लिये यह बात अबतो समझमें आई न? ज्यादे क्या कहुं, इन्द्रमलजी ! इस पुस्तकमें जं० वि० ने कितनाही शास्त्रविरुद्ध व अपना मनमाना लिखदिया है ! अब आप दूसरी बात तो जाने दीजिये, परंतु इसी पुस्तकके संबंध कुछ ही दिन पहले पालीताणामें श्रीमान् हंससागरजी महाराजने जं० वि० को कहा था की तुमारी यह पुस्तक झूठी है और इसका झूठापन साबीत करनेको मैं तैयार हूं, तब भी वे जं. वि० वहां टाइम दुला करके पलायन ही कर गये!!!
इन्द्र०-पालीताणेकी बातको तो आप जाने ही दीजिये. वहांतो खुद सागरजी महाराज भी श्रीमान् जं० वि० मा० के साथ चर्चा नहीं कर सके! तबही छ कोशकी प्रदिक्षणाके दिन आदपुरमें उन्होने हंससागरजी द्वारा धांधल करवाई थी.
वकील-उसवक्त वहां पर आप हाजीरथे, कि किसी हाज. रीवाले के मुहसे सुनी हुइ यह बात कहते हो?
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