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जो उपरोक्त रीते संवत्सरीना तप भेगो आवी शके छै, तो क्षीणपंचमीनो तप तेनी पूर्वतिथिना तपमां-अर्थात् संवत्सरीना उपवासमां शास्त्रकार महाराजने समावीज देवो पड़े, ए निर्विवाद वात छे.' देखा साहब ! कितना अन्याय ? शास्त्रकारतो खुद फरमाते है कि-'मुख्यतया तीजसेही अट्ठम करना चाहिये. कदाचित् दूजसे किया होवे तो एकाशनका प्रतिबंध नहिं' इन 'मुख्य' और 'कदाचित' शब्दकी और दुसरे प्रश्नके उत्तरमेंभी 'षष्ठकरणसामाऽभावे. और 'नान्यथा' इन शब्दोकी तो जं. वि० को कुछ किम्मत ही नहीं है न ? जिससे लिख दिया कि-" स्वतंत्र पंचमीनो तप पण जो उपरोक्त रीते संवतुमरीना तप भेगो आवी शके छे तो क्षीणपंचमीनो तप तेनी पूर्वतिथिना तपमा अर्थात् संवत्सरीना उपवासमां शास्त्रकार महाराजने समावीज देवो पडे ?" उस पाठोके अंदर यह वस्तु है क्या ? यदि किसी आसामीने दिवाला निकाले और उससे लेनदारोंने रूपेका एकआना लेकर हुंडीयोपर चुकते रूपे पानेकी भरपाई कर दी, तो क्या अब उन शाहुकार लोगोंने-'कि जिनोंके लखों रूपेकी हुंडीये अन्यलोगोंकी हो'-उन सब लोगोंसे रूपेका एक आना लेकर चुकते रूपेकी भरपाई कर देना ? और उन हुंडीयोंवालोंने भी रूपेका एक आना ही चुकाना क्या ? (बीचहीमें.)
इन्द्र०-तो क्या यह पाठ दीवालीयोंके लिये है क्या ? वकी-बेशक ! अर्थात् अहम करने में गाफलत और
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