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(१८३) विनंति की. सबब आचार्यमाहाराज अहमदावाद पधारे, और कार्यवशात चातुर्मासभी वहां पर हुआ! पीछेसे पालीताणेमें जं० वि० लोगोंको ऐसा कहने लगे कि-मेरे आने बाद सागरजी दो दो महीने तक यहां रहे तोभी कुछ बोले नहीं. बोले कहांसे? सच्चे होवे तो बोले न? ये समाचार भावनगरमें रहे हुए मुनि श्रीहंससागरजीने सुने, लेकिन वक्त विनाका बोलना अयोग्य है, ऐसा शोचकर मौन रहे. बाद सं. १९९६ माघ (गुजराती) पोष) कृष्ण ११को श्रीमान् आचार्यमाहाराजने ३५ साधुओके साथ फिर पालीतानेमें प्रवेश किया ! उस वक्त झुठप्रचारकजं० वि० भी पालीताणा ही है, ऐसा सुनकर माघशुक्ला अष्टमीके रोज मुनि श्रीहंससागरजी माहाराजभी शिहोरसे पालीताना आये और एक चिट्ठी उसी ही रोजको जं० वि० के पास उन्होने चर्चा के लीये भेजी ! उस चिट्ठीका जं० वि० ने जब कुछ भी जवाब दिया नहीं, तब माघशुक्ल १२ को एक श्रावकने उस चिट्ठीके पत्रिका छपवाकर जाहिर की और जं० वि० को भी पहुचाई. वह पत्रिका मेरे पास मोजुद है. उसे मैं पढ़कर सुनाता हूँ (पत्रिका निकालकर सहस्रमलजी पढते है.)
श्रीसंघने चेतवणी अत्र लोकवायकाथी एम सांभलवामां आव्युं छे के-रामटोलीमाथी एक महाशये श्रीतवतरंगिणीनु भाषांतर बहार पड़ाव्यु हतुं. ते बहार पडावनार महाशये तेमां अभिप्रायपूर्वकनां अनेक जुठाणां अने शास्त्र विरुद्ध लेखो लख्या छ एम माहाराज हंस
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