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मुन ? जैनपंचांगमें तिथिकी वृद्धि नहीं होती है, इसीसे परमा. र्थसे तेरस ही बढ़ति है, न कि प्रतिपत लौकिक और लोकोत्तर दोनो ही शास्त्रोमें भी प्रतिपद् बढानेका तो निषेध कीया हुआ होनेसें भी उसवक्त प्रतिपद् नही बढ़ती है. इससे सिद्ध हुआ कि-पूर्णिमाकी वृद्धि में त्रयोदशीकी ही वृद्धि करना. अब ऐसा जो तुझे नहीं रुचता हो तो पहली पूर्णिमाको छोड़कर दूसरी पूर्णिमाको आराधन कर. ऐसा भी तुझे नहीं रुचता हो तो हम तुझे पुरतें है कि-चौमासी संबंधि पूर्णिमाकी वृद्धिमें तूं त्रयोदशीकी वृद्धि करता है और अन्य पूर्णिमाकी वृद्धि में एकमकी वृद्धि करता है तो ऐसा कहांपर सिखा है ? क्योंकि-सब ही अमावास्याएं और सबही पूर्णिमा आदि तिथियें आराधने योग्य ही है। श्रीश्राद्धदिनकृत्य नामक ग्रन्थमें कहा है कि-आज छहों तिथियों में से कोनसी तिथि है ? इत्यादि पाठसे सब ही तिथिये आराधने लायक ही है. और वहां चतुर्दशी, अष्टमी बगैरह सूत्रकी व्याख्या करते है कि-चतुर्दशी अष्टमी तो प्रसिद्ध ही है. उदिष्टा ( अमावास्या) महाकल्याणक संबंधि होनसे पवित्र तिथि तरीके प्रसिद्ध होई हुई ऐसी तिथिमें और पूर्णिमाओंके अंदर तथा तीनो ही चौमासी तिथियोंके अंदर ( संपूर्ण पौषध लेपश्रावक करताथा) ऐमा दूसरे अंग श्रीसूत्रकृतांगसूत्रकी टीकामें लेपश्रावकके अधिकारमें कहा हुआ है ! यह पर्वआराधन तो चरितानुवाद है. उस वक्त श्रावककी पंचमीप्रतिमावहन करनेवाले कार्तिक शेठके मुआफिक' परंतु विधिवाद.
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