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रूप नहीं है। इसका लक्षण कहते है. किसी एक व्यक्तिने जो आचरण किया हो वह चरितानुवाद कहलाता है, और सबही लोग जिसको आचरण करें यह विधिवाद कहलाता है. विधिवाद सबहीको अंगिकार करने योग्य है, परंतु चरितानुवाद अंगिकार करने योग्य नहीं है, ऐसा श्रीसेनप्रश्नमें कहा है. वास्ते कदाग्रहको छोड़ और पूर्णिमाकी वृद्धि में त्रयोदशीकी वृद्धि कर नहीं तो गुरुलोपी और ठग हो जावेगा! इस प्रकार श्राद्धविधिमें भी तिथिखरूप कहा हुआ है, उसे भी तूं सावधान होकर सुन! सुबह प्रत्याख्यानके टाइम पर जो तिथि हो वही तिथि प्रमाण है लोकके अंदर भी सूर्योदयसे ही दिनादिकका व्यवहार होनेसे. कहा है कि-चौमासी, संवत्सरी पक्खि, पंचमी, अष्टमी आदि तिथियें उन्हीको गिनना कि-जो सूर्योदयसे युक्त हो. किंतु सूर्योदय विना की तिथि नहीं लेना. पूजा प्रत्याख्यान नियम ग्रहण आदि उस तिथिमें करना कि-जिसमें सूर्योदय हो. उदयमें जो तिथि हो उसेही ग्रहण करना. उदय विनाकि तिथि करनेमें आवे तो आज्ञाभंग-अनवस्था-मिथ्यात्व और विराधनाको प्राप्त होवे ! पाराशर स्मृतिमेंभी कहा है कि-सूर्योदय वक्त में जो तिथि हो और वह न्युन हो तब भी उसीको संपूर्ण मानना, उदय विना की बहुत हो, तोभी उसे मानना नहीं. उमास्वातीवाचकका प्रघोष तो श्राद्धविधिके अनुसार ऐसा है कि-'क्षय हो तब पहली तिथिको (क्षयतिथिपने) ग्रहण करना और वृद्धि हो तब दूसरी तिथिको (तिथिपने) ग्रहण करना,
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