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राधनं व्यतीतमेव तर्हि सुहृदभावेन पृच्छामि किं किमप्यष्टम्या रहो वृत्या समर्पितं यमष्टाप्यष्टमी परावृत्याभिमन्यते, पाक्षिकेण च किमपराद्धम् ? यत्तस्य नामापि न सहते ? इति नन्वेवं पौर्णमासीक्षयेभवतामपि का गतिरिति चेत् , अहो विचारचातुरी, यतस्तत्र चतुर्दश्यां द्वयोरपि विद्यमानत्वेन तस्सा अप्याराधनं जातमेवेति जानतापि पुनर्नोद्यते” अर्थ:-फीर, चतुर्दशी पूर्णिमा दोनों ही आराध्यत्व पने सम्मत है ( दोनों ही की आराधना जरूरी है ) इसीसें यदि तुमारी कही हुई 'चतुर्दशी क्षयके वरूत चतुर्दशीको पुर्णिमाके रोज करे इस रीतिका आश्रय लिया जायतो उसरोज पूर्णिमाका ही आराधन किया और चतुर्दशीके आराधनकोतो दत्तांजली जैसा ही हो गया ! यदि चतुर्दशीके क्षयमें उसके आराधनकामी क्षय होगया (ऐसा कहा जाय) तो हम तुझे मित्रभावसे पुछतें है कि-अष्टमीने गुप्त रीतिसे कुछ दिया है ? कि जिससे नष्ट ऐसी भी अष्टमीको परिवर्तित करकेफिराके (सप्तमीको अष्टमी बनाकर) मानते हो! और चतुर्दशीने तुमारा क्या अपराध किया है ? कि जिसका नामभी सहन नहीं होता ? ( अगर ) तूं ऐसी शंका करे कि पूर्णिमाके क्षयमें तुमारा क्या होगा ? ( अर्थात् आपभी पूर्णिमाके वक्त पूर्वमें
१ यहांभी शास्त्रकार जाहिरा तौरसे फरमातें है कि अष्टमी के क्षयमें सप्तमीको उलटाकर उसके स्थानमें भष्टमी मानी जाती है! तो भी लौकिक मार्गको अनुसरनेवाले चंडांशुंचंडुमें होती हुई क्षयतिथिको जैनशासनमें भी क्षयरुप दिखलाते हुवे श्रीराम जंबु. भव भ्रमणके भयंकर पापसेभी डरते नहीं है!!!
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