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इन्द्र०- (पृष्ट ४५ निकालकर पढ़ते हैं.) प्रश्नः - यदा चतुGori कल्पोवाच्यते अमावास्यादिवृद्धौ वा अमावास्यायां प्रति यदि वा कल्पोवाच्यते तदा षष्ठः तपः क्वविधेयं १
अर्थ:- जब चतुर्दशी के दिन कल्प वंचाता है अगर अमावास्यादिकी वृद्धिमें अमावास्या के दिन अगर एकमके दिन कल्पसूत्र वंचाता है तब छठ (बेले) का तप कब करना ? उत्तर"यदा चतुर्दश्यां कल्पोवाच्यते इति, अत्र षष्ठतपोविधाने दिन नैयत्यं नास्तीति यथा रुचितद्विधियतामिति कोऽश्राग्रहः ? " जब चतुर्दशी के दिन कल्पवांचन होता है वहां बेलेका तप करनेके लिये दिनका नियमितपना नहीं है, इच्छा मुताबिक तप करना इसमें आग्रह क्या ? देखिये, यदि पर्वतिथिकी वृद्धि नहीं होती तो " शास्त्रकार " अमावास्यादिवृद्धौ” ऐसा क्यों कहते ?
वकी० - अमावास्यादिकी वृद्धि प्रश्नकार बोलते है बोभी लौकिक पंचांग के अनुसार ही बोलतें है, न कि जैनपद्धत्यनुसार. यदि जैनपद्धत्यनुसार होता तो उत्तरमें भी “द्वितीयायां अमावास्थायां" ऐसाही कहा होता. सो तो नहीं है. वहां तो सीर्फ "अमावास्यायां " ऐसा कहने से ही सिद्ध है कि जैन पद्धतिअनुसार अमावास्यादि एकही होती है, अर्थात् पर्वतिथिकी वृद्धि होतीहीन हिं.
इन्द्र० - यहांतो साथ में 'प्रतिपदि ' ऐसा भी कहा है तो वहां " प्रथमायां प्रतिपदि, द्वितीयायां प्रतिपदि " ऐसा नहीं कहा हुआ होने से तो अब आप ऐसाहीं कह दीजिये कि तिथि मात्रकी ही वृद्धि नहीं होती है,
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