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वृद्धिके वख्त तूं जो कहता है कि-'दूसरे दिन तो तिथि बहुतही कम होती है. और पहले दिन बहुत ज्यादे होती हैं, अर्थात् पहली तिथि सूर्योदयसे लगा दिनरात रहती है इसीसे पहली ही तिथि करना!' इसपर उसे पुस्तकके दृष्टांतको दिखाते है. कि-'पहलेके दिनों में सुबहसे शाम तक बैठकर हजारों श्लोक लिखे हो या बनाये हो और एकदिन फक्त अखीरका एक ही श्लोक बनाया हो अगर लिखा हो तब भी जैसे वही दिन उस ग्रन्थ रचनाका अगर लिखनेका माना जाता है, ऐसे ही तूं "जिस दिन तिथि संपूर्ण होवे उसदिन ही उस तिथिको मान ले! ऐसा कहने परभी " यदि तूं तिथियोंके अवयव संबंधि न्युनाधिकपनेकी कल्पनाओंको करेगा तो जन्मपर्यंत दुःखित होगा! क्योंकि तेरे पूर्वजोंके बनाये हुए ग्रन्थोमें भी फक्त समाप्ति दिन ही देखने में आता है ! नहीं कि प्रयासान्वित. अब दुसरी बात क्षीणतिथिकी है. इसमें भी जैसे ग्रंथादिमें समाप्तिवाला दिन लिया जाता है वैसेही क्षीणतिथिमें भी समाप्तिवाला दिन ही लीया जाय. ऐसा ही शास्त्रकार महाराज 'एवं क्षीणतिथावपि' कहकर फरमाते है. तीसरी बात शास्त्रकार यह फरमाते है कि 'आज मैंने दो कार्य किये.' अब इस वाक्यको भी समझीये. जैसे कोर्ट में आपके दो मुकदमे है. एक मुकदमा तीन साल से चलता है, और एक मुकदमा एकसालसें चलता है. उसमें कितनीही वक्त पेशीये हुई, कितनीही वक्त गवाहोंके हुए, कितनीही वक्त मुदई मुदायलेके बयान हुए-लेकिन
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