________________
(१५३) "थे जपो सो मैं जां" बस तुमने किया सो हमने किया ! तीसरे नंबर आये क्षमाविजयजी, कि-"या पोल कढाकतक" याने यह तुमारा शास्त्रविरुद्ध मत कहांतक चलेगा ? इतनेमें चौथे नंबर आये जंबुविजयजी. वे बोलने लगे कि "धकेंजतरे धकाओ" घबराओ मत. इस पोलको धकाने के लिये मैं यह पर्वतिथिप्रकाश नामक किताब बना देता हूं! बस इस कथाको (इन्द्रमलजीकी तरफ इशारा करके) इनके पूज्यवर्गने चरितार्थ कर दिखाई हैं (सवही हँसते है इतनेमें) ।
हँस-कितना बेअक्कल पनुष्य है ? जिस कथाको श्री. अमिविजयजी महाराजने तीन थुइवालोंपर घटाई थी उसीको यहां ले बैठा है ! ( मनही मन क्या करूं सबही बैठे हुए है यदि अकेला होता तो इसकी खबर ले लेता! खैर अबभी क्या हुआ ? बैटा ! तूं कभी अंधेरे उजेलेमें मुझसे मिलना, तुझे इस कथाका स्वाद चखाउंगा!)
वकी०-अच्छा जाने दीजिये. तुमारी बातको अपने मूल विषय पर ही आईये.
इन्द्र०-अच्छा आप कहते हैं कि-पर्वतिथिकी वृद्धि नहीं होती है तो सेनप्रश्न मंगवाईये.
वकी०-(धूलचंदसे) सेनप्रश्न ले आओ. (धूलचंद सेनप्रश्न लाकर देता है और वकीलजी इन्द्रमलजीको देते है)।
इन्द्र०-(सेनप्रश्न पृ. ८७ खोलकर पढ़ते हैं) एकादशीवृद्धौ श्रीहीरविजयसूरीणाम् निर्वाणमहिमपौषधोपवासादिकत्यं
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com