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(१४६) एकही तिथिकी आराधना होती है. और अपि शब्दसे आप जो दूसरी तिथि कहते हो सो तो अयोग्य ही है. सबब वहां तो 'क्षीणाया अपि' अर्थात् वादीको कहते है कि तेरे तो क्षीण ऐसी चतुर्दशीका नाम भी नहीं रहता हैं, और हमारे तो उस क्षीणतिथिका नाम रहते हुए आराधना भी होती है. अगर यहां दोनो ही तिथिको साथ रखना या तो शास्त्रकार द्विवचनास्मक प्रयोग ही लेते, और नहीं लिया हुआ होनेसे सिद्ध होता है कि आपकी यह मान्यता आकाशकुसुमवत् ही है. __ अब पूर्वान्तरतिथिका आपका प्रश्न है, सो तो "क्षये पूर्वा" से ही सिद्ध है ! क्योंकि-पूर्वका क्षयतो आपने व आपके गुरूवर्यने मंजुर किया ही है. और पूर्णिमा अमावास्याके क्षयमें चतुर्दशीका क्षयतो आपकोभी इष्ट नहीं है. वास्ते कहनाही होगा कि-अपर्व ऐसी जो पूर्वमें रही हुई त्रयोदशी, उसीका ही क्षय होता है श्रीहीरप्रश्नभी 'त्रयोदशी चतुर्दश्योः' इस कथनसें इसी पातको पुष्ट करता है. अब रहा वृद्धितिथिका प्रश्न. इस वख्त आप जो दोनोको पर्वतिथि मानकर एकको खोखा मानते हो, यह मान्यता भी शास्त्र और परंपरासे अत्यंत विरुद्ध ही है.
इन्द्र०-नहीं, बिलकुल विरुद्ध नहीं है ! देखिये, आप हीरप्रश्नको निकालीये.
वकी०-बहोत अच्छा(धूलचंदसे) धूलचंदा हीरप्रश्न लाओ! धूल०-जीहां, लाता हुं. (लाकर देता है.) वकी०-'हीरप्रश्न देतेहुए लीजिये साहब निकालिये वहपाठ.
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