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(१६२) ही उन उन तिथियोंकी स्थापना हो जानेसे "उदयंमि" वाले नियमका भी अच्छी तरहसे पालन होता हैं, और "क्षये पूर्वी" काभी पालन होता है ! अच्छा अब आगेको पढीये.
इन्द्र०-(तत्व० लेकर पढ़ते है.) अब दूसरी रीत्यनुसार दृष्टान्त दिखाते है. "अहवा जत्थवीराया चिट्ठा अमच्चाइसंजुओ ससुहं। तत्थेव रायपरिसा ठियत्ति वुच्चह न अन्नत्थ ॥१३॥ टीका-अथवा प्रकारान्तरेण यत्रापि स्थाने ससुखममात्यादि संयुक्तो राजा तिष्ठति तत्रैव-तत्स्थान एव राजपर्षत् स्थितेत्युच्यते, राजलोकैरिति गम्यं, न पुनरन्यत्र-राजरिक्ते राजाभिष्टेप्यमात्यगृहादाविति गाथार्थः ॥ १३ ॥
अर्थ-अब दूसरी रीतिसे कहते है कि जिस स्थान में मंत्रि वगैरा युक्त राजा सुखपूर्वक रहता है, उसी स्थानमें राजलोक सहित राजसभा रही हुई है, ऐसा ही कहा जाता है। किंतु राजाके बिना दूसरी जगह अगर तो राजाको प्रिय ऐसे मंत्रि आदिके मकानादिकमें राजसभा नहीं कही जाती है. ऐसा गाथार्थ है.
अथ पूर्व पूर्णिमायां पाक्षिककृत्यमासीत् कालिकाचार्यादेशाच सांप्रतं चतुर्दश्यामतस्तत् क्षये पौर्णमास्येव युक्तिमतीस्यादित्याद्यपि कस्यचिद्भान्तस्य भ्रान्तिर्भवति तदपाकृतये गाथामाह
अर्थ:-पहले पाक्षिककृत्य पूर्णिमामें था. वर्तमानमें श्रीकालिकसूरि माहाराजके हुक्मसे चतुर्दशीके अंदर हुआ इसीसे चतुर्दशीका क्षय हो तब चतुर्दशीको पूर्णिमामें मानना योग्य
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