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है ? मोहसे अलग होये हुएको; याने अभिनिवेशिक मिथ्यास्वमोहरुपी ग्रहसे ग्रसीत नहीं हुआ है चित्त जिनोंका, ऐसोंको आज्ञायुक्तता होती है. यह कालत्रयनिषेधवचन, वचनमात्र होनेसें अपने घरमें ही कहा हुआ सुंदर है-ऐमा बोलना नहिः सबब-पाक्षिककृत्य जो उपवासतप चैत्यपरिपाटी साधुवंदन आदिरुप चतुर्दशीमही कहा हुआ है. इस विषयको पहले दूसरी गाथाकी व्याख्यामें अन्य ग्रन्थोकी सम्मतिपूर्वक कहा हुआ होनेसें और अगली गाथामें औरभी कहने का होनेसें. " अथ कालत्रयेपि निषेधः, कुत इत्यन्वयव्य तिरेकहेतुगर्मितं ग्रन्थान्तरोक्तार्यान्वितं गाथा युग्ममाह-." उपर कहे हुए कालत्रयनिषेधकी सावितीमें विधि और हेतुगर्भित अन्य ग्रन्थोकी दो गाथायें कहते है. जेणं चउदसीए तव चेह असाहु वंदणाकरणे । पच्छित्तं जिण कहिअं महानिसीहाइ गंथेसु ॥ १५ ॥ न हु तह पन्नरसीए पक्खिअकजं जिणेण उवह हूँ । किंतु पुणो बीअंगे चउमासिति पुणिमा गहि आ १६
येन कारणेन महानिशीथादिषु ग्रन्थेषु चतुर्दश्यामेव तपः चतुर्थलक्षणं 'चेइति चैत्यपरिपाटिः साधुनामन्यवसतिगतानामपि वंदनं तेषामकरणे प्रायश्चित्तं जिनैः कथितं, यथेति गम्यं, अग्रेतनगाथायां तथेति शब्दस्य वक्ष्यमाणत्वादिति गाथार्थ १५
'नहु त०' नैव हु-निश्चयेन तथा तेन प्रकारेण पश्चदश्यां पाक्षिककृत्यं जिनेनोपदिष्टं दर्शित मिति, अन्यथोभयत्र चतुर्थ
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