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(१४२) कायम किये बाद ही उसकी आराधना होती है ! और सप्तमीकी तो शंका तक करनेके लिये ग्रन्थकार मुमानीयत करतेहै.
"तत्र त्रयोदशीति व्यपदेश शंकापि न विधेया" तस्वतरंगिणी पृ. ७ लाईन ४-५ वहां चतुर्दशीके क्षयवक्त त्रयोदशी है ऐसी शंका तक भी नहीं करना ऐमा खुल्लम खुल्ला शास्त्रकारका फरमान होते हुएभी आप अपनी एक ही बातको क्यों पकड़ रखते हो? और भी देखिये. तच्चतरंगिणी पृ.१५ पंक्ति ८" ननु भो कालीकसूरिवचनात् चतुर्दश्यां आगमादे. शाच्च पंचदश्यामपि चातुर्मासिकं युक्तं त्रयोदश्यां तव्यपदेशाभावेन द्वयोरपि विराधकत्वात् श्रीमत एवैते दोषाः प्रत्यबसर्पन्ति नास्मान् प्रतीति चेत्"वादीको कहते है कि कालिकसरि महाराजके वचनसे चतुर्दशीके दिन, और आगमके वचनसे पूर्णि. माके दिन चौमासी युक्त है. किंतु त्रयोदशीके दिन तो चतुर्दशीके व्यपदेशका अभाव ही होनेसे आपको कालिकसूरिका वचन तथा आगम दोनोंका विराधकपनाहै, हमारेको वह दोष है ही नहिं एमा जो तूं कहता हो तो "अहो प्राकप्रपंचावसरेंऽगुलिपिहितश्रोत्रपथ्यभवद्भवान् येनेत्थं नि?ष्यमाणे अद्यापि त्रयोदशीमेव वदसि" आश्चर्य है कि पहले जब हमने इस वि. षयकी व्याख्या की उसवक्त क्या कानों में डाल कर रहाथा, कि जिससे ऐसी घोषणा करते हुएभी तू अबतक त्रयोदशी २ घोलता है ? यद्वा
अरण्यरुपनं कृतं शवशरीरमुर्तितं, श्वपुच्छ भ.
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