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भी गिनती रत्नकी गिनतीसें पृथग् होती है.
वकी०-(इन्द्र० से) देखा साहब ! जहां शास्त्रकार तो कहते है कि-"तत्र त्रयोदशीति व्यपदेश शङ्कापि न विधेया" अर्थात् क्षीणचतुर्दशीके बख्त त्रयोदशी है ऐसा मानना तो दूर रहा, लेकिन उसकी शंकाभी नहीं करना ! वहां आपतो सप्तमी अष्टमी शरीफ है त्रयोदशी चतुर्दशी शरीफ है ऐसाही मानते है और बोलतेभी है, यह कैसा अन्याय ? अच्छा आगेको पढीये.
इन्द्र०-(पढते है) "एवं त्रुटिततिथिसंयुक्ता तिथि कारण विशेषे [पयोगिनी भवन्त्यपि न पुनर्बलवत् कार्य विहाय स्वकार्यस्यैवोपयोगिनी, नहि अपरीक्षक चौरादिहस्तगतव्यतिरिक्तं रत्नसंयुक्तं तानं ताम्रमूल्येनैवोपलभ्यते, तद्धस्तगतं तूपलभ्यतेपि, यदुक्तं ललितविस्तराटिप्पन के "नार्यन्ति रत्नानि समुद्रजानि, परीक्षका यत्र न सन्ति देशे। आभीर घोषे किल चन्द्रकान्तं, त्रिभिर्वराटैः प्रवदन्ति गोपाः ।। १॥ इति गाथार्थः ॥
अर्थ:-ऐसेही क्षयतिथियुक्त जो तिथि है. वह तिथि (त्रयोदशी) कारणविशेषमें उपयोगी होती हुईभी बलवान कार्यको छोडकर अपने कार्य के लिये उपयोगी नहीं होती है. परीक्षक और शाहुकार आदिके हाथमें गया हुआ ताम्रयुक्त रत्न, ताम्रमूल्यसे नहीं मिल सकता है; हां, अपरीक्षक, चौर
और बाल आदिके हाथमें गया हुआ ताम्रयुक्त रत्न तो ताम्रके मूल्यसे मिलमी सकता है ! इससे ललितविस्तरा ग्रन्थके टिप्पनमें कहा है कि-" जिस देश में परीक्षक नहीं है उस
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