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सरणं गओवि राया लोआणं होइ जह पुज्जो ॥ १२ ॥ ___टीका-एवं प्रागुक्तयुक्त्या हीनचतुर्दशी तावत् त्रयोदशी युक्तापि गृह्यमाणा नदोषमावहतीति पूर्वार्द्धार्थः, अथ दृष्टान्तेन समर्थितमपि 'द्विबंद्धं सुबद्धं भवतीति न्यायात् पुनरपि दृष्टा. न्तबाहुल्यं दर्शयति 'सरण'त्ति महतामप्यापदः संभवात् कदाचिदप्यापदिगतस्य राज्ञो यच्छरणं गृहदुर्गादि भवति तत्र गतोपि राजा लोकानां पूज्या सेवनीयो भवतीत्यर्थः, अयं भावः दुर्गा दिगतोपि सेव्यः, तत्स्थानमपि यत्नतो रक्षणीयं, न पुनाराजसंयुक्तमपि तत्स्थानं मूलतो विनश्यकदाचिदप्यशरणीभूतमरण्या. दिकममात्यगृहं वा यत्र तत्र बुद्धयाराजानमारोप्य तदाराधनं हि तावद्भवितुमर्हति, न वा केवलं सभास्थित एवेत्यादिः लोकप्रसिद्धो दृष्टान्तः सूत्रैकदेशेनैव बुद्धया गम्य इति गाथार्थः ॥१२॥
अर्थ:-ऐसेही पहले कही हुई युक्तिद्वारा त्रयोदशीयुक्त ग्रहण की हुई चतुर्दशी दोषके लिये नहीं होती है। इस युक्तिको दृढ़ की है, तो भी दृष्टान्त द्वारा मजबूत बनाते है सबब, दो वक्तका बंधा हुआ विशेष मजबूत रहता है, इसी न्यायसें बड़ोंकोभी आपदाका संभव होने से कोईवक्त आपद् प्राप्त होए हुए राजाको किल्ला वगैरह शरणभूत होता है, और वहां गया हुआ भी राजा, लोगोंको सेवनीय होता है. वह स्थान भी यत्नपूर्वक रक्षण करने योग्य हैं. राजसहीत उस स्थानको नष्ट करके अशरणीभूत ऐसे जंगल आदि अगर मंत्र्यादिकके मका. नमें अगर जहां तहां अपनी बुद्धिसे राजाको आरोपण करके
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