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(१२१) है इस बातको मैं आपको पहले समझामी चुका हूं ! अब मेरी एक प्रश्न है कि-जंबुवि० ने जो अर्थ इन तीन गाथाका लिखा हैं वह यथार्थ है क्या ?
इन्द्र०-(कुछ शोचकर) यथार्थ तो नहीं है.
वकी०-बस मैंने जो कहाथा कि-आपके मुंहसे कबूल करवाउँगा, सो करवा दिया. अब आप सातवीं गाथा पढिये. __इन्द्र०-(तत्व० लेकर पढते है) "जो जस्स अट्ठी सो तं अविणासय संजुअंपि गिण्हेह। न य पुण तओ वि अन्नं तकनपसाहणा भावा ॥ ७॥"
टीका-यो यस्यार्थी-यदभिलाषी स तद्वस्तु जातं गृहाति यथा तथा अविनाशकसंयुक्तमपीति, अविनाशकत्वं चात्र अभिलषितवस्तुस्वरूपाप्रतिबन्धकवस्तुत्वं अभिलषितवस्तु साध्यकार्याऽप्रतिबन्धकवस्तुत्वं वा ग्राह्य. तेन मरणाद्यवसरविशेषमासा. द्यविषसंयुक्तपायसादिग्रहणे तदन्याग्रहणे चापि न दोषः, न च पुनस्ततोऽन्यद्वस्तु गृहातीति लालाघंटान्यायेनेहापि सम्बध्यते, न गृह्णाति कुतः १ तत्कार्यप्रसाधनाभावात्-तत्कार्यकरणासामादिति रहस्यमिति गाथार्थः ॥ ७ ॥
अर्थ-जैसे जो जिस वस्तुका अर्थी है वह उसी वस्तुको ग्रहण करता है वैसे ही अविनाशक वस्तु करके संयुक्त, एसी वह वस्तु हो तोभी उस वस्तुको ग्रहण करता है. (अविनाशकका स्वरूप कहते है ) इच्छित वस्तु स्वरूपको नहीं रोकनेवाली वस्तुका उस वस्तुके साथमें मिलके रहना, अथवा इच्छित वस्तुका
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