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(१२०) देशमें (वसमुद्र सेंउतप) हम होनेवाले रत्नोंकी किम्मत नहीं होती है, सचमुच भरवाड (आहिर) लोगोके झुपडे में गोवालीये, चन्द्रकांत मणिको तीन कौड़ीका ही बोलते है! ऐसे इस गाथाका अर्थ हुआ.
वकी०-देखा न साहब ! ग्रंथकार क्या कहते है ? अष्टमी युक्त जो सप्तमी हैं, वह अष्टमीही है, न कि सप्तमी. शास्त्रकारतो साफ २ फरमाते है कि-बलवान कार्य-जो मुहूर्तादि, उसके शिवाय वह तिथि उस तिथिपने में ही नहीं रहती हैं। और आपतो विनाकारण ही सप्तमी अष्टमी शरीफ होनेका बोलते है ! इस गाथाके विषय में भी जंबु वि० अपने पर्व० प्र० पृ. ९९ में लिखते है कि-"मतलब ए के के जो अपर्वतिथि पर्वतिथियुक्त होय तो तेने केवल अपर्वतिथिनी नजरे जोवी ए अयोग्य छे." जनाव, इन्द्रमलजी साहब ! आपके पूज्यजीने जो लिखा किसिर्फ अपर्वतिथिकी दृष्टि से देखना अयोग्य है ऐसा अर्थ इस छट्ठी गाथाकी टीकामें है क्या?
इन्द्र०-नहीं. यहांपरतो शास्त्रकार साफ २ जाहिर करते है कि-त्रयोदशी हैं, ऐसी शंकाभी नहीं करना! परंतु प्रश्न यह है कि भाषांतरमें जो श्रीजंबुवि० मा० ने इससे विपरीत लिखा है तो क्या विनाही शोचे समझे लिखदिया होगा?
वकी०-शोच समझकर लिखा है, तो आपही दिखलाइये ! शास्त्रकारतो उस त्रयोदशीको ताम्र जैसी कहते हैं और चतुर्दशीको रत्न जैसी कहते हैं; और व्यवहारतो रत्नसेंही होता
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