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अर्थ - घृतकी इच्छासे जो दुधको ग्रहण करना, आदि शब्द रूपे पैसे भी लेना. इसमें व्याप्ति भंगका दोष नहीं है. जैसे घृतार्थी द्वार करके दुधको ग्रहण करता हुआ घृतार्थी कहलाता है, वैसे दुधार्थी भी कहलाता है; कारण में कार्यका उपचार होनेसें. दुधको ग्रहण करता हुवा भी घृतको ग्रहण करता है ऐसाही कहलाता है. " इदानीं द्वारोपचारौ दृष्टान्तेन स्पष्टयति" अब द्वार और उपचारको दृष्टान्तसें स्पष्ट करतें हैं. "जह सिद्धठ्ठी दिक्खं गिण्हं तो तह पत्थाओ दारूं । नयतं कारणभावं मोत्तुणं संभव उभयं ॥ ९ ॥" टीका- यथा सिद्धयर्थी - मोक्षाभिलाषी मोक्षार्थित्वद्वारा दीक्षा गृह्णन् दीक्षार्थीत्यपि मोक्षार्थी, व्यपदिश्यते, कार्येच्छुनाम् हि कारणेच्छुत्वनियमादिति द्वारेच्छत्वं प्रदश्यधुनोपचारं दर्शयतियथा दारूणि प्रस्थक इति व्यपदेशः, अयं भावः दारु हस्तकोपि पुरुषः, 'प्रस्थक हस्तो यातीति' व्यपदिश्यते, एवं दुग्धं गृह्णन्नपि घृतं गृह्णातीत्युच्यते इति । अथ हेतुव्यतिरेकेणोभयाभावं दर्शयति 'नयत'न्ति न च तदुभयं प्रागुक्तं द्वारोपचारद्वयं संभवति, किं कृत्वा ?, मुक्तवा, कं १, कारणभावं, कारण पदमुपलक्षणपरं, तेन कार्य कारणभाव मुक्त्वेति भावार्थः इति गाथार्थः ॥ ९ ॥
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अर्थ:- जैसे मोक्षाभिलाषी मोक्षकी चाहनाद्वारा दीक्षाको ग्रहण करता हुआ दीक्षार्थी कहलाने परमी मोक्षार्थी कहा जाता है. क्योंकि कार्यकी इच्छावालोंको कारणकी चाहना नियमसे होती ही है. ऐसेही द्वारका चाहनापन दिखाकर अब
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