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(१०६) देश' होकर 'भानूदय:' ऐसा रूप बनगया. यह सामान्य विशेष है, इसी मुताबिक "उदयंमि०" वाला नियम सामान्य नियम है. इससे यह किया कि-तिथि उदयवाली ग्रहण करना; परंतु बात यह है कि-क्षयवृद्धि हो तब क्या करना ? क्योंकि अयद्धिमें तो यह नियम लागु नहीं हो सकता! तिथि ही नहीं है तो यह नीयम किसको लगावें ? इसीसें "क्षये पूर्वा०" का विशेष नियम बनाया गयाः अब आप समझे होगे कि'उदयंमि०' नियम क्षयवृद्धिके बख्त कामका ही नहीं ? दूसरी बात यह है कि-हम लोगतो चतुर्दशी क्षय के बख्त सुबहसे ही प्रयोदशीको चतुर्दशीरूप मानते है. इससे " उदयंमि" वाले नियमका भी हमारेको तो पालन होता है। क्योंकि-त्रयोदशीका सूर्योदय पहले ही चतुर्दशीका सुबहका प्रतिक्रमण करके प्रतिकमणमें धारते है कि-'आज चतुर्दशी होनेसें उपवास करना है वगैरह. और "क्षये पूर्वा" का भी हमारेको पालन होता है ! 'त्रयोदशीका क्षय माननेसें.' इन नियमोंको आप भूल गये और चतुर्दशीके धयके बख्त त्रयोदशी खडी रखने लगे तब आपको ही यह विरोध खड़ा हुआ! और विरोध मिटानेको प्रथमाके स्थानमें सप्तमीको लाकर बिठाना पड़ा ! वाहजी वाह ! आपकी वृद्धिको भी धन्य हो! इससे आपको अब तो निश्चित हुआ न ? कि-क्षय हो तब पूर्व अपर्वतिथिको क्षयतिथिरूप ही मानना
और वृद्धि हो तब उत्तरतिथिकों तत्तिथिरूप मानना, तत्वतरं. गिणीकारने मी इसीसें ही कहा है कि-"त्रयोदशीति व्यपदेश
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