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रोपो, यथा शुक्तिकायामिदं रजतमिति”
अर्थ:- तुझा रेसें तो पूर्णिमामें बुद्धिसे क्षय चतुर्दशीका आरोप करके वह क्षीणचतुर्दशी आराधन की जाती है. उसके (पूर्णिमाके) अंदर उसके ( चतुर्दशीके) भोगकी गंधका अभाव होते हुए भी तत्रसे (चतुर्दशीपने से ) स्वीकार की हुई होनेसें, आरोप, मिथ्याज्ञान है. कारण कि 'प्रमाणनयतत्रलोकालंकार' नामके ग्रंथ में पूज्य श्रीदेवाचार्य महाराजने कहा है, कि उस वस्तुके अभाव में उस वस्तुका अध्यवसाय करना, सो आरोपित ज्ञान है. जैसें छीपके अंदर यह चांदी है, ( एसा जो अध्यवस्याय सो मिथ्याज्ञान है.)
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किंच क्षीणपाक्षिकानुष्ठानं पौर्णमास्यामनुष्ठीयमानं किं पंचदश्यानुष्ठानं पाक्षिकानुष्ठानं वा व्यपदिश्यते ? आद्ये पाक्षिकानुष्ठान विलोपपत्तिः, द्वितीये स्पष्टमेव मृषाभाषणं, पंचदश्या एव चतुर्दशीत्वेन व्यपदिश्यमानत्वात् न च क्षीणे पाक्षिके त्रयोदश्यां चतुर्दशीज्ञानमारोपरूपं भविष्यतीति वाच्यं तत्रारोपलक्षणस्यासंभवात् नहि घटपटवति भूतले घटपटौस्त इति ज्ञानं, कनकरत्नमय कुंडले (वा) कनकरत्नज्ञानम् भ्रान्तं भवितुमर्हति " शास्त्रकार वादीको औरभी कहते है, कि तुम्हारे तरफसें पूर्णिमा के अंदर होता हुआ क्षीणचतुर्दशी के अनुष्ठानको पूर्णिमाके अनुष्ठानसें या चतुर्दशीके अनुष्ठानसें व्यवहार करेंगें ? प्रथम पक्ष स्वीकार के अंदर चतुर्दशीके अनुष्ठानको लोपकी आपत्ति आवेगी. और दूसरे पक्ष में स्पष्ट मृषाभाषण होगा !
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