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उपवास आयंबील और दो रोज की पृथक् पृथक् क्रिया स्वरूप पौषध और देसावगासिक व अतिथिसंविभाग संबंधी सबही धर्मानुष्ठान उसको प्राप्त हो गया न कि जिससे बोलदिया कि एक दिन में दोनोंही तिथियों की आराधना करते है ?
करना है एककी आराधना, और बोलना है दोकी आराधना! तिसपर भी आपसे तो मृषावाद अलाहिदा ही रहे, यह भी एक अपूर्व आश्चर्य है न ? अच्छा, आगे को पढ़िये.
इन्द्र०-(पढ़ते है) एवमेकसिन्नेव रव्यादिवारलक्षणेवासरे द्वयोरपितिथ्योः समाप्तत्वेन विद्यमानत्वात् कौतस्कुत्यमारोपज्ञानं १ अत एवात्रैव प्रकरणे-"संपुण्णत्ति अकाउ"मिति गाथायां या तिथियसिनेवादित्यादिवारलक्षणे दिने समाप्यते स दिनस्ततिथित्वेन स्वीकार्य इत्याद्यर्थे संमोहो न कार्य इति ।
अर्थः-रविवार आदि लक्षणके एक ही दिनमें दोनों भी तिथि समाप्त होनेपूर्वक विद्यमान होनेसें 'चौदशमें पुनमका' आरोप ज्ञान कैसे हो? इसी लियेही इसी प्रकरणमें "संपुण्णत्ति अकाउं" इस गाथामें 'जो तिथि रवि आदि लक्षणरूप जिस दिनमें समाप्त हो वह दिन, उप्स (क्षय ) तिथि पने स्वीकार करना, वगैरह कीये हुए अर्थमें मोह करना नहीं-मुंझाना नहीं.
वकी०-देखा न साहब? शास्त्रकारने इधर 'द्वितिथित्वेन' नहीं कहते हुए "तत्तिथित्वेन" कहकर 'तत्' शब्दका एकत्रचनसें एक दीन में एक ही तिथि लेने का साफ फरमान कीया है. इसी से यह भी साफ समझा दीया कि-उस पूर्व तिथिको ही
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