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लेकिन जैन शास्त्रानुसार वृद्धितिथि तो आकाशकुसुम जैसी ही है. जैनशास्त्रों का ऐसा फरमान होते हुए भी 'अतिरात्र' शब्दका वृद्धि तिथि अर्थ बतलाकर जनताको भ्रममें डालना क्या न्याय संगत है ?
इन्द्र० - तो श्रीमान् उपाध्यायजीने पर्वतिथि प्रकाशमें जो सूर्यप्रका पाठ दिया है वह गलत है क्या ?
वकी० - पाठ तो गलत नहीं है, किंतु उसका अर्थ जो उनोने लिखा है वह अर्थ तो अवश्यमेव गलत है ! क्यों किअतिरात्रका अर्थ 'दिवस' करना छोड़कर वृद्धि-तिथि ही लिख दिया है, जो मैं आपको पहले भी बताचुका हूं !
इन्द्र० - " चतुर्दश्यां द्वयोरपि विद्यमानत्वेन तस्या अप्याराधनं जातमेव" इस वाक्य से यहतो सिद्ध हुआ कि चतुर्दशी के अंदर पूर्णिमा शरीक होनेसे उसरोज दोनो तिथियोंकी आराधना हो गई !
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बकी ० - पहले मैं आपको बता चुका हूं और आपने भी उस वाक्यका यथार्थ अर्थ सुनाषा है, तो भी आप अपनी पकड़ी हुई बातको क्यों छोड़ नहीं सकतें ? अच्छा, आप ही कहिये, शरीक (साथ) को आप कैसे मानतें है ?
इन्द्र ० - जैसे कुछ वक्त पहले यहांपर पंडितजी और कुंवरसाहब दोनो आये, इनको कह सकते है कि दोनो साथही आये हैं. वकी० - यदि पंडितजी अपने स्थान से आते, और कुंवरसाहब अपने स्थान से आते और पंडीतजी आकर बैठे कि इनके
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