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________________ (९५) लेकिन जैन शास्त्रानुसार वृद्धितिथि तो आकाशकुसुम जैसी ही है. जैनशास्त्रों का ऐसा फरमान होते हुए भी 'अतिरात्र' शब्दका वृद्धि तिथि अर्थ बतलाकर जनताको भ्रममें डालना क्या न्याय संगत है ? इन्द्र० - तो श्रीमान् उपाध्यायजीने पर्वतिथि प्रकाशमें जो सूर्यप्रका पाठ दिया है वह गलत है क्या ? वकी० - पाठ तो गलत नहीं है, किंतु उसका अर्थ जो उनोने लिखा है वह अर्थ तो अवश्यमेव गलत है ! क्यों किअतिरात्रका अर्थ 'दिवस' करना छोड़कर वृद्धि-तिथि ही लिख दिया है, जो मैं आपको पहले भी बताचुका हूं ! इन्द्र० - " चतुर्दश्यां द्वयोरपि विद्यमानत्वेन तस्या अप्याराधनं जातमेव" इस वाक्य से यहतो सिद्ध हुआ कि चतुर्दशी के अंदर पूर्णिमा शरीक होनेसे उसरोज दोनो तिथियोंकी आराधना हो गई ! ● बकी ० - पहले मैं आपको बता चुका हूं और आपने भी उस वाक्यका यथार्थ अर्थ सुनाषा है, तो भी आप अपनी पकड़ी हुई बातको क्यों छोड़ नहीं सकतें ? अच्छा, आप ही कहिये, शरीक (साथ) को आप कैसे मानतें है ? इन्द्र ० - जैसे कुछ वक्त पहले यहांपर पंडितजी और कुंवरसाहब दोनो आये, इनको कह सकते है कि दोनो साथही आये हैं. वकी० - यदि पंडितजी अपने स्थान से आते, और कुंवरसाहब अपने स्थान से आते और पंडीतजी आकर बैठे कि इनके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034996
Book TitleParvtithi Prakash Timir Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrailokya
PublisherMotichand Dipchand Thania
Publication Year1943
Total Pages248
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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