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इसी अभिप्राय से इस गाथा में "अवि-अपि " शब्द कहा हुआ होनेसें. वकी० - इन वाक्योंकों ख्याल में रखीये कि- जगत् मात्रका व्यवहार मुख्य वस्तुसेही होता है, न कि गौणसे अच्छा. अब आप जंबुवि० ने पर्वतिथिप्रकाश नामक किताब में उसका कैसा उलटा अर्थ कीया है, वह देखीये !
इन्द्र०- ( पर्व ० प्र० पृ. २४ खोलकर पढ़ते है ) " पहेला तेरसने तेरस एवा नामनो पण असंभव जणावी चौदशज कहेवाय' ए प्रमाणे कछु अने अहीं तमे 'क्षीण तिथिनी संज्ञावाली पण कहेवाय' ए प्रमाणे कहेवा मागो छो, तो आ परस्पर विरोध केम न गणाय !
वकी० - (इन्द्र० से ) देखा जनाब ! प्रश्नकारवादी 'अवरा' शब्दसे क्षीण चतुर्दशीको समझा हुआ है. परंतु 'अपि' शब्दको लेकरही वादी कहता है कि अन्य संज्ञाभी याने विद्यमान त्रयोदशीभी होती है. परंतु जंबुवि० ने इसी अर्थको उलटाकर क्षीणतिथिकी संज्ञावाली भी ऐमा झूठा अर्थ स्वमताग्रहसे ही किया है. अच्छा अब आप आगेको पढ़िये.
इन्द्र०- ( पढ़ते है . ) आनो जवाब ए छे के अमे प्रायश्चिचादि विधियां कडेल होवाथी विरोध आवतो नथी. अथवा मुख्य अने गौणना मेदथी तेरस होवा छतां मुख्यपणे चौदशज कहेवाय' एवो अमारो अभिप्राय होवाथी कशोज विरोध नथी.
वकी - देखिये साहब ! उसमें भी मूलमें " तेरस होवा छतां " इस वाक्यकी गंधतक नहीं है, तोभी यह अपना मनः
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