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किसी तरहासे भी सिद्ध नहीं हो सकता है. सबब अन्य लिखी हुई प्रतिमें इन गाथाओंकी व्याख्या नहीं है उपरोक्त कारणोंसे सिद्ध हुआ कि यह टीका अन्य किसीकी लिखी हुई पीछेसेही प्रक्षिप्त है ! एसी अबोध मूल टीकाको सामने धरकरतो जंबु. वि० अपने मतके झुट्ठापनको ही सिद्ध करते है. आपतो इस मुद्रित प्रतिके आधरसेही चलिये.
इन्द्र०-(पढ़ते है.) "न च प्राकचतुर्दश्येवेत्युक्तं, अत्र तु अबरावीत्यनेन अपि शब्दादन्यसंज्ञापि ग्रह्यते, तत्कथं न विरोध इति वाच्यं" अर्थः-शास्त्रकार वादिकों कहते है कि-पहले तो चतुर्दशीही होती है ऐसा कहा, और अब यहां "अपरावि" शब्दके अंदरके 'अवि-अपि' शब्दसें अन्य संज्ञाभी होती है अर्थात् 'अबरा' शब्दसें चतुर्दशीको लेकर 'अपि' शब्दसें चतुदेशीके साथ त्रयोदशीभी है, इससे विरोध क्यों नहीं होता? ऐसा बोलना नहीं. क्योंकि-"प्रायश्चितादि विधावित्युक्तत्वात्। अर्थः-प्रायश्चितादि विधि (याने धर्मक्रिया चतुर्दशीही कहना) में कहा हुआ होनेसे.
वकी०-सुना साहब ! शास्त्रकार का कहना तो प्रायश्चित्ता. दि विधिमें चतुर्दशी ही है. आपके गुरुक मुताबिक तेरसचोदश शरीक बातकी यहां गंधभी है ? अच्छा आगे पढ़िये.
इन्द्र०-(पढ़ते है) "गौण मुख्यभेदात् मुख्यतया चतुर्दश्या एव व्यपदेशो युक्त इत्यभिप्रायेणोक्तत्वाद्वा" अर्थः अथवा गौणमुख्य भेदसे मुख्य तौरपर चौदशकाही व्यपदेश योग्यहै,
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