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कही हुइ तीन पूर्णिमाओंके अलावा और सब ही पूर्णिमाओंका तो पर्वपनाही नष्ट हो जाता है. क्योंकि शास्त्रकारतो इन तीन पूर्णिमाओके साथ सब ही पूर्णिमाओंको पर्वपने ग्रहण करते है.
हां, जं. वि. को तो यह नकार ठीक ही है ! क्योकि उनकी गिनती ऐसी है कि इस पाठमें 'नकार लेने से पूर्णिमाका पर्व पना नष्ट हो जाय तो सब टंटाफिसाद मिट जाय !, और अपना मत सुखरुप चले, लेकिन चल नहीं सकता सवच शास्त्रकारतो सबही पूर्णिमाओंको पर्वरूपही मानते है. .
इस नकारको अंदर घुमानेके लिये जे वि०ने एक औरभी नई तरकीब की है उसेभी सुनिये जं० वि० ने अपनी पर्वति. थिप्रकाश नामक पुस्तक पृष्ट पांचवें में भगवान् श्रीहेमचंद्राचार्य महाराजके वचनकोभी उथलाकर लिखा है कि दो अष्टमी और दो चतुर्दशी यहीभी जैनदर्शनकी चतुष्प: है. कैसा जुल्म ? कलिकालसर्वज्ञ भगवान् श्रीहेमचंद्रसूरिजी महाराज तो अपने (मुद्रित) योगशास्त्र पृ. १७८ में "चतुष्प:-अष्टमी-चतुर्दशी पूर्णिमा-अमावास्या-लक्षणा, चतुओं पर्वाणां समाहारश्चतुष्पर्वी"
अर्थ- अष्टमी-चतुर्दशी-पूर्णिमा और अमावास्या ये ही चतुष्पी होती है ऐसे साफ फरमानसे विरुद्ध चलनेवाले जं. वि० के दिलकी पहचान भी करना चाहिये ! अच्छा. आगेको पढ़िये.
इन्द्र-(पढते है) "तथाहि-आराधनभ्रान्त्या पाक्षिकत्यं पौर्णमासीदिने न, युक्तमिति गम्यम् , उत्तरार्धेन दृष्टान्तयति
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