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(६४) 'हीणदुम्मि.' येनकारणेन हिनाष्टमी-धीणाष्टमी आगध्यत्वेन संमतायामपि कल्याणकनवम्यां प्रमाणमित्यावयोरपि सिद्धं, न च कल्याणकनवम्याश्चतुष्पीरूपतयाराध्यत्वाभावात् कथं तुल्यतेति वाच्यं, सप्तम्य पेक्षयाऽऽगध्यत्वेनाधिक्याविरोधात् , भवता तु स्वमत्याऽऽराध्यन्वेनाधिक्यमेवेति पूत्क्रियते-अत: शनैः शनैरेव जल्पनीयमिति" अर्थः-शास्त्रकार ऐसा कहते है कि आराधनाकी भ्रान्तिसे चतुर्दशीका कृत्य, पूर्णिमाके दिवस योग्य नहीं है. इसी बातको सिद्ध करनेके लीये उत्तरार्ध गाथासे दृष्टांत दिखलाते है. "हीणमि" जिस कारण करके, आरा. ध्यत्व करके सम्मत ऐसी कल्याणक नौमीके अंदर क्षीणाष्टमी प्रमाण नहीं है, यहतो हम और तुम दोनो ही को कबूल है. 'इधर' कल्याणक नौमीमें चतुष्परूिप आराध्यताका अभाव होनेसे तुल्यता कैसे हो सकती है ? ऐसा बोलना नहीं.
कारण कि सप्तमी की अपेक्षासे तो कल्याणक नौमीका आराध्यपने में अधिकत्वताकातनिकभी विरोध नहीं है आप तो अब तक अपनी मतिसेही 'पूर्णिमाका" आगध्यत्व करके अधिकपना है. ऐसा पुकारते थे! अर्थात् इस पूर्णिमाको चतु:की गिनती में तो अब गिनने लगे हो। इसीसे (अब) आस्ते२ ही बड़बड़ना !!!
किंच क्षीणाष्टमीयुक्ता सप्तमी चतुष्पय॑न्तर्वर्तिनी न वा ? आये किं न क्षीणचतुर्दशी युक्ता त्रयोदृश्यपि ? तथा द्वितीये तवैवानिष्टं, पर्वतिथि व्यतिरिक्ततिथिषु पौषधानङ्गीकारात् ।
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