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(६१) "नाराहणभंतीए पक्खि अकज्जं च पुणिमादिवसे । हीणठ्ठमि कल्लाणगनवमीए जेण न पमाणं ॥ ५ ॥
अर्थः- आराधना की भ्रांतिसे पक्खीका कार्य पुनमके दिन प्रमाण नहीं है. जैसे क्षीणाष्टमीका कृत्य कल्याणक नवमी में प्रमाण नहीं है. ( वैसेही) टीका यद्यप्यागमें चतुमासिक संबंधि न्यस्तिस्रः पौर्णमास्यः अमावास्याश्च पुण्यतिथित्वेन महाकल्याणकतया प्रख्याता - आराध्यत्वेनोक्तास्तथापि क्वापि श्रावकाणां केवल पौषधव्रतमेवाश्रित्य सामान्येन गृहिता दृश्यंते, अतः तदपेक्षयैव युक्तयो दयेते.
अर्थ:- जोकि आगमोंमें चौमासी संबंधी तीन पूर्णिमायें और सर्व अमावास्यायें पुण्यतिथि पने और मंहा कल्याणकपने प्रसिद्ध कही है - आराध्यत्वपने कही हैं: तोभी कोई जगह श्रावकों के सिर्फ पौषधव्रतको ही आश्रय करके सामान्य तौरपर 'सब पूर्णिमायें' ग्रहण की हुई देखने में आती है, इसी अपेक्षा सें युक्तिये दिखाते है. (वकी० सा० की ओर देखकर ) उपाध्या जी माहाराजकी प्रतिमें तो उपरोक्त पाठके अंदर 'न' कार है परंतु इसमें तो नहीं है.
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वकी० - यहां भी आपके पूज्यश्री की भूल ही है ! क्योंकि यहां 'न'कारका संबंध जुड़ता ही नहीं है. देखिये कि इस पाठ में तीन पूर्णिमाएं कहकर पीछे 'सामान्य' शब्द कहने से तो पौषधके लिये आराधना में सबही - पूर्णिमाएं लेने की कही है. इसी से कहा है कि - सामान्य तौरपर जो अन्यत्र पूर्णिमाएं ग्रहण की हुई
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