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कारके आशयविरुद्ध लिखकर श्रीजंबुविज ने मूल ग्रंथकारके हेतुकातो नाश ही किया है.
पांचमी बात यह है कि मूल गाथामें रहे हुए "अवरविद्ध" शब्दकों तो टीकाकार एक वक्ततो "क्षीणतिथिमिर्विद्धा" ऐसा लिखकर बहुवचनकी तौरपर समझ सके है और दूसरी वक्त जहां "अवरविद्ध" शब्दके साथ संबंधवाला "अवरा" शब्दभी बहुवचन है और बहुवचन होते हुए भी इन्ही टीकाकारने उसे एकवचनही समझ रखा है ! यह कैसी विद्वत्ता ? और आगेको रहे हुए "हुज" ऐसे बहुवचनात्मक क्रियापदको देखकर तो ये टीकाकार घबरा गये कि जिससे लिखना पड़ा कि "प्राकृ. तत्वाद् बढथे एकवचनं" महाशयजी जिनको एकवचन बहुव. चनकाभी ख्याल नहीं है, ऐसे व्यक्तिकी लिखी हुई सामान्य व्याख्याकोभी श्रीमान् धर्मसागरजी माहाराज जैसे समर्थविद्वान् महात्माके नामपर चड़ा देने से तो जंबुवि० ने अपने मत संबंधि आग्रहमें फसकर ५० पू० उ० श्रीधर्मसागरजी माहाराजकोभी निर्बुद्धि मनानेका तुच्छ प्रयास किया है ? घोर अन्याय किया है।
इस टीकाके संबंधमें वास्तविक बात ऐसी है कि किसी सामान्य बोधवालेने अपनी प्रतपर समझने के लिये ऐसा लिख रखा हो, बादमें किसीने दूसरी प्रत लिखवाई हो तो लेखक (लइया) ने उस लिखानको भी अंदर जोड़ दिया हो. अलवा इसके यह कृति श्रीमान् धर्मसागरजी माहाराजकी है ऐसा
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