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उससे साफ जाहिर होता है कि-चतुर्दशी भी होती है ! फीर 'त्रयोदशी भी' ऐसा क्यों समझाया जाता है ?
वकी०-आप, टीका-नियुक्ति-पंजिका-कारीका वगैरह के लक्षण जानते हो ? कि लकीरके फकीर बनके बैठे हो ? कहिये ये दोनो गाथाएं ग्रन्थकारने अपना पक्ष, जो 'त्रयोदशीका तो नामही नहीं लेना' इसकी पुष्टीमें साक्षी तरीके ही दीहेन ? ___इन्द्र०-बेशक साक्षी तरीके ही दी है.
वकी०-अब यहां विचार करीये कि-जंबुविजयजीका किया हुवा अर्थ और मान्यता कुच्छमी संगत होती है ? इनकी मान्यतानुसार तो ग्रन्थकार अपनेही पुरावेसें अपनी बातको कमजोर बनाते है ऐसा सिद्ध होता है। यह कभी बनता है कि ग्रन्थकार, पहले तो कहगये कि " चतुर्दश्येव" और उस कथनकी साक्षीमें लिख देवे कि 'चौदशभी' ऐसे लेखक तो जंबुविजयजी एक ही है ! जंबुविजयजीके माफक श्रीमान् धर्मसागरजी माहाराजकोभी एवकार और अपि शब्दकी तारतम्यता व अर्थका कुछ ख्याल ही नहीं था क्या? खेदकी बात है कि स्वमताग्रहमें फसे हुए जंबुबि० झुटे अर्थ करके पूर्वाचायोकों भी दोषित दिखाने में अपनी महत्ता मानते है ! जंबुवि० लिखते है कि-'इन दो गाथाओंकी यह टीका है.' इससे तो मुझे कहना ही होगा कि-जंबुवि० को टीकादि किसे कहना इसकाभी ज्ञान नहीं है ! दर असल बात यह है कि टीकाकार महाशय मूल ग्रन्थकी ही टीका करतें है न कि उस टीकाकी
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