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(५०) त्यां तेरस एवा नामनो पण असंभव के का छे के-(इतने में)
वकी-अब आप देखिये कि, शंकाके अंदर तेरसके साथ रहे हुवे 'अपि' शब्द के अर्थ को तो देशनिकाल दे दिया है. 'ठीक' शब्दके साथ 'परंतु' को जोड़ा है' तो "सत्यं किं तु" ऐसा मूलमें है क्या ? "प्रायश्चित्तादि विधिमें तेरसको चौदश ऐसा नाम दिया हुवा होनेसे" ऐसा आपके पूज्यजीने अर्थ लिखा है तो टीकाकारने "प्रायश्चित्तादि विधौ त्रयोदश्याः चतुर्दशीत्यभिधानमर्पितत्वात्" ऐमा उपरोक्त पाठका उपयोग किया है ?
इन्द्र०-ऐसा पाठ तो नहीं है किंतु वहां तो ऐमा लिखा है कि-"चतुर्दश्येवेति व्यपदिश्यमानत्वात्" अर्थ 'चतुर्दशीही' इस प्रकार व्यवहार होनेसें.
वकी०- इसमें हेतु और साध्यकोभी आपके गुरूजीने दिखाया नहीं है ! खेर आगे पढीये.
इन्द्र०-(तत्वतरंगिणी लेकर पढ़ते है) संवच्छर चाउमासे पक्ख अठाहिआमुयतिहिमु ताउ पमाणं भणीया जाओ सुगे उदयमेइ ॥१॥ अह जइ कह वि न लब्भन्ति ताओ सूरूग्गमेण जुत्ताओ ता अवरविद्ध अवरावि हुन्ज नहु पुब्ब तबिद्धा ॥२॥ ____अर्थ:-संवत्सरी चौमासी पक्खी और तीनो अठाहीयोकी तिथि, वही ग्रहण करना कि-जिसमें सूर्य उदय हुवा हो. यदि सूर्योदयबाली तिथि नहीं मिले तो दूसरीसें विधाई हुई दूसरीभी होती है. लेकिन उससे विधाई हुई पहली तो होती ही नहीं है.
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