________________ (22) अन्तरात्मा : आचार्य, उपाध्याय, साधु आत्म स्वरूप में रमण करने वाले, आत्माभिमुख, ज्ञान दर्शन चारित्र सम्पन्न आत्मा अन्तरात्मा कहा जाता है। यद्यपि अन्तरात्मा में चतुर्थ गुणस्थानवर्ती आत्मा का समावेश किया है तथापि उत्कृष्ट अन्तरात्मा चारित्रधारी को ही मान्य किया है। जैन दर्शन भाव प्रधान दर्शन है। सम्यग्दृष्टि आत्मा भेद विज्ञानी होने से व्रतधारी होने पर भी वे अनासक्त होने से निष्कामकर्ता कहे गये है। आचाराङ्ग में अनेक स्थलों पर स्पष्ट उद्घोष किया है "सम्मतदंसी न करेई पावं" 'सम्यग्दृष्टि पापकर्म नहीं करता।' इससे यह निश्चित हो जाता है कि सम्यग्दृष्टि-आत्मदर्शी है। आत्मसापेक्ष, आत्मलक्षी परिणति होने से अन्तरात्मा कहा जाता है। भाव चारित्र में रमण करने के कारण अपेक्षाभेद से उनमें साधुत्व माना जा सकता है। आचार्य, उपाध्याय तथा साधु ये अन्तरात्मा की कोटि में आते ही हैं, इससे इतना तो निश्चित हो जाता है। परमात्मा, अन्तरात्मा : पंचपरमेष्ठी : जैन धर्म/दर्शन इन्हीं दोनों अवस्थाओं में निहित आत्माओं को पंच परमेष्ठी' में समाविष्ट करता है। ये पंच-परमेष्ठी अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु हैं। प्रस्तुत प्रबन्ध का ध्येय भी इन 'पंच-परमेष्ठी' की स्वरूप-चर्चा है। * * * * * * *