________________ - (21) गुणस्थानवर्ती हैं। अघाती चतुष्क कर्मों की सत्ता भवोपग्राही होने से वे कारणपरमात्मा हैं। भवोपरान्त वे परम शुद्धावस्था को वरण करने वाले हैं। अष्ट कर्मों का नाश और समस्त परद्रव्यों का त्याग कर केवल ज्ञानमय आत्मा को प्राप्त करना कार्य परमात्मा है। अरिहन्त परमात्मा कारण परमात्मा है तथा सिद्ध परमात्मा कार्य परमात्मा है। सकल एवं विकल, ये दो प्रकार भी परमात्मा के है। यहाँ कल शब्द का अर्थ शरीर है, जो शरीर युक्त है वे सकल परमात्मा हैं एवं जो शरीर से वियुक्त हैं, (अशरीरी), अष्ट कर्मों से मुक्त सिद्ध परमात्मा विकल परमात्मा हैं। तेरहवें सयोगी केवली और चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थानवर्ती आत्मा परमात्मा स्वरूप है। आत्मा की इन 3 अवस्थाओं को मिथ्यादर्शी, सम्यग्दर्शी तथा सर्वदर्शी भी कहा जा सकता है। प्रकारान्तर से इन अवस्थाओं को पतित-अवस्था, साधकावस्था तथा साध्यावस्था या सिद्धावस्था भी कहा गया है। किसी अपेक्षा से नैतिकता की पृष्ठभूमि में इनको अनैतिकता, नैतिकता तथा अतिनैतिकता नाम भी दिया जा सकता है। समीक्षा की दृष्टि से पहली अवस्था दुराचारी अथवा दुरात्मा की है, द्वितीयावस्था सदाचारी या महात्मा की है तथा चरमावस्था आदर्शात्मा या मुक्तात्मा, परमात्मा की है। पंडितवर्य सुखलालजी ने आध्यात्मिक उत्क्रान्ति की अवस्थाओं में इनको आध्यात्मिक अविकास की अवस्था, आध्यात्मिक विकासावस्था तथा आध्यात्मिक पूर्णावस्था कहा है। परमात्मा-अरिहन्त, सिद्ध __उपर्युक्त तथ्यों से यह निष्कर्ष सहज ही प्रभूत हो जाता है कि परमात्म स्वरूप अरिहन्त तथा सिद्ध हैं। सांख्य दर्शन, योगदर्शन, न्याय दर्शन, वेदान्त दर्शन सभी ने इन अवस्थाओं को किसी न किसी रूप से अंगीकार किया है। न्याय-वैशेषिकसांख्ययोग-वेदान्त इस अवस्थाओं को जीवन्मुक्त तथा विदेहमुक्त से अभिहित किया है। जैन दर्शन सयोगी केवली-अरिहन्त तथा अयोगी केवली-सिद्ध रूप से परमात्मा के दो भेद मान्य करता है। जो क्रम से जीवन्मुक्त और विदेहमुक्त ही हैं। 1. नि. सा. ता. वृ. 6,7 नयचक्र गा. 340, मो. पा.५, प. प्र. 1. 15-25, द्र. स. 14.42.4. 2. कार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. 192, 198, नि. सा., 177-178, स. श. 30-31, प. प्र. 1-33. 3. पंडित सुखलाल 'दर्शन अने चिन्तन' भाग-२, पृ. 1012.