________________ (19) बहिरात्मा के द्रव्य संग्रह की टीका में तीन भेद किये हैं१. तीव्र बहिरात्मा : मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती आत्मा' 2. मध्यम बहिरात्मा : सासादन गुणस्थानवर्ती आत्मा 3. मंद बहिरात्मा : मिश्र गुणस्थानवर्ती आत्मा अन्तरात्मा-अन्तमुर्शी आत्म साक्षेप जिसकी वृत्ति हो वह अन्तरात्मा होता है। 'वह संयमधनी साधक सर्वथा सावधान और सर्व प्रकार से समझ युक्त होकर अकरणीय पापकर्मों में यत्न नहीं करता। वह जानता है 'जो शब्दादि विषय हैं, वे संसार के मूल कारण हैं। इसीलिए विषयाभिलाषी महद् दुःखों का अनुभव करता है।'२ 'इस प्रकार संयम के लिए उद्यत होकर अन्तर्मुखी बनकर वह धीर पुरुष मुहूर्त्तमात्र का भी प्रमाद नहीं करता क्योंकि वय और यौवन बीतता चला जा रहा है। वह आत्माभिमुखी होकर चिन्तन करता है ये कामभोग दुरतिक्रम्य है, जीवन बढ़ाया नहीं जा सकता अतः प्रमाद न करे। वह दीर्घदर्शी संसार की विचित्रता जानता है, तीनों लोकों की दिशाओं में विषयाभिलाषी परिभ्रमण करता है यह जानकर, वह संसार के बंधनों से मुक्त होता है। शरीर के अन्दर और बाहर असारता को देखकर, वह मोहाभिभूत नहीं होता। वह तत्त्वज्ञ और परमार्थदृष्टा है, मोक्ष के सिवाय अन्यत्र रमण नहीं करता। वह सम्यक्त्वदर्शी संयम की आराधना करके आत्मा और शरीर का भेद विज्ञान जानने का पुरुषार्थ करते हैं। इस प्रकार ममत्व बुद्धि को त्यागनेवाला मुनि ही मुक्त, अपरिग्रही एवं त्यागी कहे गये हैं। वह कर्म स्वरूप को जानकर राग और द्वेष से दूर रहने का उपाय करता है। सम्यग्दृष्टि तत्त्ववेत्ता परम तत्त्व को जानकर पाप कर्म नहीं करता। ऐसे दिव्य दृष्टिवाले साधक को ब्रह्म-शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है। इस प्रकार आत्माभिमुखता की ओर संलग्न हैं वे अन्तरात्मा आत्म-संकल्प में निरत है। 1. द्रव्य संग्रह टीका, गा. 14 / 46 / 2. आचा. 1.1.7.64 3. वही, 1. 2. 1. 4. वही, 1. 2. 1, 1. 2. 4. 5. वही, 1. 2.5. 6. वहीं, 1.2.6, भगवती 20, श. 2 उद्दे. 7. वही, 1. 3. 1, मो. पा.५-९, रय, सा, 141, समाधितंत्र-५, परमात्म प्रकाश, 14. 8. आचा. 1.3.2 9. वही, 1.5.2, नि. सा. 149. १०.मो. पा.५