________________ नैषधीयचरिते (काली) और हरिण ( सफेद ) दो आँखों के रूप में दो कालसार ( कृष्ण. सार ) हरिणों ( मृगों ) को न फाँस सको // 19 // टिप्पणी-यहाँ सीधी-सी बात यह थी कि रनिवास में सैकड़ों सुन्दरियाँ थीं, जिनकी सविलास गतियां और नृत्य-गीत-सौन्दर्यादि गुण समूह वशीकरण का साधन होते हुए भी राजा की आँखों को अपनी ओर नहीं खींच सके / इस पर कवि रूपक का बड़ा विचित्र साम्य-विधान कर गया है / श्लिष्ट भाषा में बालायें बन गये बाल सौन्दर्यादि गुण बन गये गुण अर्थात् बटकर बालों से बनी ऊनी डोर जिससे कामदेव ने दो कृष्णसार मृगों को फाँसने के लिए वागुरा-जाल बनाया। कृष्णसार मृग बने नल के कालसार और हरिण ( काली-सफेद ) दो आँखें। किन्तु सब कुछ ठीक होते हुए भी कवि इस साम्यविधान में एक कमी रख गया है और वह है यहाँ व्याध का अभाव / काम को यदि वह व्याध कह देता, तो व्याध-कर्म का चित्र सर्वाङ्गीण बन जाता। इसी मात्र एक कमी के कारण रूपक समस्त वस्तु विषयक न होकर एक देश विवर्तो रह गया है, जिसके साथ श्लेष भी है और फांसने के कारण होने पर भी फांसना रूप कार्य न होने से विशेषोक्ति भी है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। 'बाला, वली, वलि' में वर्णों का एक से अधिक बार साम्य होने से छेक के स्थान में वृत्त्यनुप्रास ही रहेगा। दोर्मूलमालोक्य कचं रुरुत्सोस्ततः कुचौ तावनुलेपयन्त्याः। नाभीमथैष श्लथवाससोऽनुमिमील दिक्षु क्रमकृष्टचक्षुः // 20 // अन्वयः- एष कचम् रुरुत्सोः ( कस्याश्चित् तरुण्याः ) दोर्मूलम् आलोक्य, ततः अनुलेपयन्त्याः ( तस्याः) तो कुची ( आलोक्य ) अथ श्लथ-वाससः ( तस्याः ) नाभीम् ( आलोक्य ) दिक्षु क्रम-कृष्ट-चक्षुः ( सन् ) अनुमिमील / टीका-एष नलः कचम् केशपाशम् रुरुत्सो रोधुमिच्छुकायाः उपरि केशसंयमनं कुर्वत्या इति यावत् कस्याश्चित् युवत्याः दोषोः बाह्वोः मूलम् मूलस्थानम् कक्षमित्यर्थः (10 तत्पु० ) आलोक्य दृष्ट्वा तत: तदनन्तरम् अनुलेपयन्त्याः सुगन्धितद्रव्यलेपनं कुर्वल्याः तस्याः तौ सुन्दरो कुचौ स्तनौ आलोक्येति शेषः, अथ तदनन्तरम् श्लथं शिथिलं सस्तमिति यावत् वासः वस्त्रम् ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूताम् (ब० वी० ) नाभीम उदरावर्तम् आलोक्य विक्षु उपरितनदेशात् अधस्तनदेशे इत्यर्थः क्रमेण क्रमशः कृष्टं समाकृष्टं (तृ० तत्पु० ) चक्षः नेत्रं