Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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प्रस्तावना
इनमें से पहली गाथामें बतलाया है कि पांच अधिकारों में तीन गाथाएं हैं। इस गाथाके पूर्वार्द्ध में उन तीनों गाथाओंका तो निर्देश किया ही है, साथ ही साथ जिन पांच अधिकारों में वे तीन गाथाएं हैं उनका भी निर्देश इसी पूर्वार्धमें है । जयधवलाकारके व्याख्यानके अनुसार वे अधिकार हैं-१ पेजदोसविहत्ती, २ द्विदिविहत्ति, ३ अणुभागविहत्ति, ४ बंधग और च पद से संक्रम। किन्तु चूर्णिसूत्रकार उससे चार ही अधिकार लेते हैं १ पेजदोस, २ विहत्तिद्विदि अणुभागे च, ३ बंध और ४ संकम।
दूसरी गाथामें बतलाया है कि वेदक अधिकारमें चार, उपयोग अधिकारमें सात, चतुःस्थान अधिकारमें सोलह और व्यंजन अधिकारमें पाँच गाथाएँ हैं। तीसरी गाथामें बतलाया है कि दर्शनमाह की उपशामना नामक अधिकारमें पन्द्रह और दर्शनमोहकी क्षपणा नामक अधिकारमें पांच सूत्र गाथाएँ हैं। चौथी गाथामें बतलाया है कि संयमासंयमकी लब्धि नामक अधिकारमें
और चारित्रकी लब्धि नामक अधिकारमें एक ही गाथा है। और चारित्रमोहकी उपशामना नामक अधिकारमें आठ गाथाएं हैं।
पांचवी और छठी गाथामें चारित्रमोहकी क्षपणा नामक अधिकारके अवान्तर अधिकारोंमें गाथा संख्याका निर्देश करके कुल गाथाएं २८ बतलाई हैं। इस प्रकार पन्द्रह अधिकारों में प्रन्थकारने जब स्वयं गाथा संख्याका निर्देश किया है तब तो उक्त आशंकाके लिये कोई स्थान ही नहीं रहता है।
____ इन गाथाओं पर चूर्णिसूत्र नहीं हैं। इस पर से यह आशङ्का की जा सकती है कि चूर्णिसूत्रकारके सामने ये गाथाएं नहीं थीं। यदि ऐसा होता तो अधिकारनिर्देशमें अन्तर पड़ने की समस्या सरलतासे सुलझ जाती। किन्तु इन गाथाओं पर चूर्णिसूत्र न रच कर भी चूर्णिसूत्रकारने इन गाथाओं का न केवल अनुसरण किया है किन्तु उनके पदों को भी अपने चूर्णिसूत्रों में लिया है और यह बात उनके चूर्णिसूत्रोंके अवलोकनसे स्पष्ट हो जाती है।
___ जैसे, चूर्णिसूत्रकारने चारित्रलब्धि नामका अधिकार नहीं माना है फिर भी चौथी गाथाका 'लद्धी तहा चरित्तस्स' पद चूर्णिसूत्रमें पाया जाता है। यथा-'लद्धी तहा चरित्तस्सेत्ति अणिओगद्दारे पुव्वं गमणिज्ज सुतं । तं जहा, जा चेव संजमासंजमे भणिदा गाहा सा चेव एत्थ वि कायव्वा।' इससे स्पष्ट है कि उक्त गाथाएं चूर्णिसूत्रकारके सामने थीं। ऐसी परिस्थितिमें उन्होंने क्यों पृथक अधिकारोंका निर्देश किया ? यह प्रश्न एक जिज्ञासुके चित्तमें उत्पन्न हुए बिना नहीं रहता।
जयधवलाकारने भी अपने विवरण में इस प्रश्न को उठाया है। प्रश्नकर्ताका कहना है कि जब गुणधर भट्टारकने स्वयं पन्द्रह अधिकारोंका निर्देश कर दिया था तो चूर्णिसूत्रकार यतिवृषभ आचार्यने उन्हें दूसरे प्रकारसे क्यों कहा और ऐसा करनेसे उन्हें गुरु की अवज्ञा करनेवाला क्यों न कहा जाय ? इस प्रश्न का समाधान जयधवलाकारने यह कह कर किया है कि 'गुणधरभट्टारकने अधिकारोंकी दिशामात्र दरसाई थी अतः उनके बतलाये हुए अधिकारोंका निषेध न करके दूसरे प्रकारसे उनका निर्देश करनेसे यतिवृषभको गुणधर भट्टारकका अवज्ञा करने वाला नहीं कहा जा सकता। अधिकारोंके और भी प्रकार हो सकते हैं।। श्री वीरसेन स्वामीके इस समाधानसे मनमें एक आकांक्षा शेष रह जाती है कि यदि वे उपस्थित होते तो उनके चरणारबिन्दमें जाकर पूछते कि भगवन ! सूत्रकारके द्वारा निर्दिष्ट अधिकारोंके रहते हुए भी वृत्तिकारने बिना किसी खास कारणके क्यों अधिकारोंमें अन्तर किया ?
चूर्णिसूत्रमें निर्दिष्ट अधिकारोंके सम्बन्धमें ध्यान देने योग्य दूसरी बात यह है कि (१) कसायया० पृ० १८५ ।
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