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नैतिकता के सन्दर्भ में-कर्मसिद्धान्त की उपयोगिता ५३
ईसाई धर्म में पाप कर्म से बचने की चिन्ता नहीं : क्यों और कैसे?
इसके विपरीत ईसाई धर्म के सिद्धान्तों पर दृष्टिपात करते हैं तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि वहाँ नैतिक-अनैतिक आचरण (कर्म) का शुभ-अशुभ फल सीधा कर्म से नहीं मिलता, ईश्वर से मिलता है। जैसा कि डॉ. ए. बी. शिवाजी लिखते हैं-'मसीही धर्म में कर्म, विश्वास और पश्चात्ताप पर अधिक बल दिया गया है। याकूब, जो प्रभु ईसामसीह का भाई था, अपनी पत्री में लिखता है-“सो तुमने देख लिया कि मनुष्य केवल विश्वास से ही नहीं, कर्मों से भी धर्मी ठहरता है। अर्थात्-कर्मों के साथ विश्वास भी आवश्यक
'पौलूस' विश्वास पर बल देता है। उसका कथन है-"मनुष्य विश्वास से धर्मी ठहरता है, कर्मों से नहीं।"
यह तथ्य स्पष्ट कर देता है कि मनुष्य के कर्म (शुभाशुभ या नैतिक-अनैतिक आचरण) उसका उद्धार नहीं कर सकते। वह अपने कर्मों पर घमण्ड नहीं कर सकता। पौलूस की विचारधारा में कर्म की अपेक्षा विश्वास का ही अधिक महत्त्व है। "यदि इब्राहीम कर्मों से धर्मी ठहराया जाता तो उसे घमण्ड करने की जगह होती, परन्तु परमेश्वर के निकट नहीं।" पौलूस की लिखी हुई कई पत्रियों में इस बात के प्रमाण हैं। "जीवन में मोक्ष का आधार कर्म नहीं, विश्वास है।" "विश्वास से धर्मीजन जीवित रहेंगे।"
ईसामसीह के अन्य शिष्यों ने भी विश्वास पर बल दिया है। इसी विश्वास को लेकर 'यूहन्ना' ईसामसीह के शब्दों को लिखता है-"यदि तुम विश्वास न करोगे कि मैं वही हूँ तो अपने पापों में मरोगे।"२ - इसके अतिरिक्त डॉ. ए. बी. शिवाजी लिखते हैं-"मसीही धर्म में कर्म के साथ ही अनुग्रह का बहुत अधिक महत्त्व है, क्योंकि उद्धार अनुग्रह के ही कारण है। यदि ईश्वर अनुग्रह न करे तो कर्म व्यर्थ है।" बाइबिल में लिखा है-"जो मुझ से 'हे प्रभु, हे प्रभु'
२. (क) याकूब की पत्री २ : २४
(ख) रोमियो ५ :१ (ग) रोमियो ४ :२ (घ) प्रेरितो के काम १६:३१ (ङ) यूहन्ना ८ : २४ (च) जिनवाणी कर्म सिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित "मसीही धर्म में कर्म की मान्यता" लेख से, . पृ.२०५-२०६
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