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कर्म का कर्ता कौन, फलभोक्ता कौन ? २२७
इसीलिए जैनकर्मविज्ञान ने ईश्वर के द्वारा कर्तृत्व अथवा फल प्रदातृत्व के प्रश्न पर गम्भीरता से विचार करते हुए प्रत्येक पक्ष का खण्डन किया और यह प्रतिपादित किया कि ईश्वर किसी का उत्थान या पतन करने वाला नहीं है। आत्मा स्वयं ही अपना उत्थान और पतन करता है। जब आत्मा स्वभाव दशा में रमण करता है, तब अपना उत्थान करता है, जब आत्मा विभावदशा में रमण करता है, तब उसका पतन होता है। विभावदशा में रमण करने वाली आत्मा ही वैतरणी नदी और कूट शाल्मली वृक्ष है, तथा स्वभावदशा में रमण करने वाली आत्मा कामधेनु और नन्दनवन है। शुभमार्ग पर चलने वाला आत्मा अपना मित्र है और अशुभ- विषम मार्ग पर चलने वाला आत्मा स्वयं ही अपना शत्रु है।'
गीता में ईश्वरकर्तृत्ववाद के बदले आत्मकर्तृत्ववाद का समर्थन
भगवद्गीता में अर्जुन के द्वारा पूछे गये एक प्रश्न का उत्तर भी ईश्वरकर्तृत्ववाद के विरुद्ध है। अर्जुन ने जिज्ञासावश पूछा - "मनुष्य जान-बूझ कर न चाहते हुए भी किस की प्रेरणा से पाप कर्म करता है ? कौन उसे जबर्दस्ती पाप कर्म में प्रवृत्त ( नियुक्त) कर देता है ?” इस प्रश्न का उत्तर देते हुए श्री कृष्ण कहते हैं -- "मनुष्य के अन्तःकरण में जन्म-जन्मान्तर से पड़े हुए काम ( कामना, वासना, राग, मोह आदि) एवं क्रोध (उत्तेजना, घृणा, द्वेषादि की तीव्रता ); जो कि राजोगुण से उत्पन्न होते हैं। वे महापापकर्म (महामोहनीय कर्म) जीवों को चिरकाल तक अपने चंगुल में फंसाए रखते हैं। इन्हीं को तू `शत्रु समझ।२
पापकर्म में बलात् नियुक्त या प्रवृत्त करने वाला अपना भावकर्म ही
कुरुक्षेत्र के मैदान में कर्मयोगी श्री कृष्ण ने पापकर्म में बलात् धकेलने वाला ईश्वर या किसी अदृश्य शक्ति को नहीं कहा है। किन्तु श्री कृष्ण का स्पष्ट और सीधा उत्तर है कि जीव के अन्तर में स्थित महापाप कर्म कराने वाले महाशन (अतीव व्यापक) काम और क्रोध, जैनदर्शन की भाषा में कहें तो राग और द्वेष (अथवा क्रोधादि
१. (क) उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानमात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥” (ख) अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली । अप्पा कामदुहाणू, अप्पा मे नंदणं वणं ॥ (ग) “अप्पामित्तममित्त च दुष्पट्ठिय सुप्पट्ठिओ" २. (क) अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः । अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय ! बलादिव नियोजितः ?”
- उत्तराध्ययन २०/३६
-वही, २०/३७
काम एष क्रोध एष रजोगुण-समुद्भवः । महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ॥
-- भगवद्गीता अ. ३, श्लोक ३७-३८
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-गीता
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