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कर्म-महावृक्ष के सामान्य और विशेष फल ? ३४९ नीच गोत्री अपने जीवन में अशुभ आचार-विचार-संस्कार का त्याग करके उच्चगोत्री हो सकते हैं। ऐसे व्यक्ति गृहस्थ श्रावक धर्म तथा मुनिधर्म के पालन के पूर्ण अधिकारी हो जाते हैं।
___ अन्तरायकर्म-जीव (आत्मा) की दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये पांच अनुजीवी शक्तियाँ हैं। इन्हें आवृत और कुण्ठित करने वाले कर्म को अन्तरायकर्म कहते हैं। इसके पांच भेद हैं।'
कर्म के ये आठों ही भेद तथा प्रभेद फलदान की अपेक्षा से किये गए हैं। आठों ही कर्म अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार, अनुभाग की तीव्रता-मन्दता को लेकर फलदान देते हैं। ज्ञानावरणीयादि अष्टविध कर्मों के फल की विचित्रता
... प्रज्ञापनासूत्र के कर्म प्रकृति पद के पंचम अनुभाव द्वार में ज्ञानावरणीय आदि अष्टविध कर्मों का अनुभाव (विपाक या फल का वेदन-भोग) किस-किस निमित्त से, कैसे-कैसे और कितने-कितने प्रकार का होता है ? इसकी विस्तृत चर्चा की गई है। अष्टविध कर्मों के विचित्र विपाक को हृदयंगम करने से लाभ - कर्मविपाक का जैनकर्मविज्ञान ने बहुत ही व्यवस्थित ढंग से प्रतिपादन किया है। कर्मविपाक के भी नियम होते हैं। उन नियमों को जो व्यक्ति भलीभाँति हृदयंगम कर लेता है, वह कर्मों की निर्जरा, संवर और क्षय करने की साधना और रत्नत्रयरूप धर्म की आराधना अच्छी तरह कर सकता है। वह भविष्य में घटित होने वाले अथवा सम्भावित दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदल सकता है, निकाचित रूप से बंधे हुए कर्मों को भी फलभोग के समय समभाव से सहर्ष भोगकर क्षीण कर सकता है, उदय में आने (फलोन्मुख होने) से पूर्व कर्मों की सजातीय प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश (मात्रा) को बदल सकता है। आने वाली बुराइयों और विपदाओं से बच सकता है। अष्टविध कर्मों के विचित्र एवं विभिन्न विपाक कैसे-कैसे, किन निमित्तों से . कर्मविपाक एक ही जीव के इस जन्म और पूर्वजन्म के विभिन्न और विचित्र प्रकार के हो सकते हैं। यह ध्यान रहे कि अष्टविध कर्मों के ये अनुभाव (कर्मफलभोग) उसी जीव के होते हैं, जिसके द्वारा वह-वह कर्म स्पृष्ट, बद्ध, बद्धस्पृष्ट, संचित, चित,
१. महाबंधो भाग २ की प्रस्तावना-(कर्म मीमांसा) (पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री) से पृ. १९-२० २. इन आठों ही कर्मों की प्रकृति तथा स्वरूप आदि का विस्तृत निरूपण 'कर्मबन्ध का विराट रूप'
नामक खण्ड में देखें।-सं. ३. जैनधर्म : अर्हत् और अर्हताएँ से भावांश ग्रहण, पृ. २२९
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