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४४४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) सिक्कों के प्रचलन से वस्तुओं का विनिमय होने लगा। चतुर और चालाक व्यक्तियों ने साधनों पर एकाधिकार जमा लिया, दूसरे पीछे रह गए। ___कुछ लोगों ने अन्याय, अनीति, शोषण और सत्ता के बल पर धन बटोरना शुरू किया। कुछ लोग चोरी, डकैती, व्यभिचारवृत्ति आदि के जोर से धन सम्पन्न बने। कुछ नीति-न्याय से आजीविका करके धन सम्पन्न बने, उन्होंने दान, परोपकार आदि सत्कार्यों में अपनी सम्पत्ति को लगाया, फलतः उनको अधिकाधिक सुखानुभव हुआ एवं होता है। जिन लोगों ने अन्याय, अनीति आदि से, कुकर्मों से धनसम्पन्नता बढ़ाई, उनका धन या तो यों ही पड़ा रह गया, या फिर विलासिता में खर्च हुआ, या चोरी, डकैती, अग्निकाण्ड आदि द्वारा वह धन चला गया। इस प्रकार उनकी धनसम्पन्नता अधिकाधिक दुःखानुभूति का कारण बनी।
अतः धनादि सामग्री की प्राप्ति-अप्राप्ति ही सुख-दुःख का या पुण्य-पाप का कारण नहीं है। तथैव एक का श्रीमान होना, और एक का निर्धन रहना भी सुख-दुःख या पुण्य-पाप का कारण नहीं, यह तो सामाजिक व्यवस्था एवं मनुष्यकृत सत्पुरुषार्थ, कुपुरुषार्थ या अपुरुषार्थ पर निर्भर है।
बाह्य साधनों की उपलब्धि भी साता-असातावेदनीय के निमित्त से नहीं होती और न ही लाभान्तराय कर्म के क्षय-क्षयोपशम के निमित्त से होती है। लोक में बाह्य साधनों की प्राप्ति के अनेक मार्ग दृष्टिगोचर होते हैं। साधनों की प्राप्ति-अप्राप्ति पुण्य-पाप या सुख-दुःखरूप फल नहीं, किन्तु उनमें मनुष्य का प्रयत्न, परिस्थिति, क्षेत्र, काल आदि कारण है। वस्तुतः पुण्य-पाप तो इन बाह्य व्यवस्थाओं (राष्ट्रगत एवं समाजगत व्यवस्थाओं) से परे हैं, वह तो आध्यात्मिक है, आत्मिक सुख-दुःख संवेदन मूलक हैं।
जैन कर्मविज्ञान में कर्मसिद्धान्त की प्राणप्रतिष्ठा मुख्यतया आध्यात्मिक आधारों पर की गई है। वह (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव आदि) निमित्त को स्वीकार करके भी कार्य के आध्यात्मिक विश्लेषण पर जोर देता है। उसके मतानुसार जिस काल में वस्तु की जैसी योग्यता होती है, उसी के अनुसार कार्य होता है। जैसे-जैसे द्रव्य, क्षेत्रादि जिस-जिस कार्य के लिए अनुकूल या प्रतिकूल होते हैं, तदनुसार वे उसके निमित्त बनते हैं। यह बात दूसरी है कि अनुकूल सामग्री मिलने पर भी मनुष्य अपने कषायानुसार प्रतिकूल (दुःख का) वेदन करे या प्रतिकूल सामग्री मिलने पर भी वह अनुकूल (सुख का) वेदन करे।
१. वही, प्रस्तावना-कर्ममीमांसा से, पृ. २७
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